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हमारे संस्कृति के पुराने गौरव कब लौटेंगे?

हमारे संस्कृति के पुराने गौरव कब लौटेंगे?

by आलोक

     एक दिन बनारस स्थित करपात्री महाराज जी के आश्रम में हमारा जाना हुआ, वहाँ मौजूद एक छात्र से वाराणसी की समृद्ध गुरुकुल परंपरा के बारे में चर्चा होने लगी।
उन्होंने बताया कि बनारस में गुरुकुल परंपरा अभी भी समृद्ध रूप में जीवित है। वहाँ उसके आसपास वैसे बहुत से मठ थे, उसके ठीक बगल में ही एक विद्या मठ था जो शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा संचालित था, जिसमें 150 बच्चे नियमित पढ़ते थे। ऐसे-ऐसे बहुत सारे गुरुकुल बनारस में मिल जाएंगे जहाँ हमारी संस्कृति के धरोहरों को संजो कर रखा जाता है और धार्मिक अध्ययन अध्यापन किया जाता है।
सामान्यतः इन गुरुकुलों में 10 वर्ष तक के बच्चों का प्रवेश लिया जाता है जिसके बाद वे 6 वर्षो तक वेदों का पठन-पाठन करते है। इस बीच उनका रहना खाना सब गुरुकुलों में ही होता है और वे गुरुकुल जनसामान्य के दान-पुण्य वैगेरह से ही इन सबका खर्चा उठा पाते है।
इन छः वर्षो में वे बच्चें चारों में से किसी एक वेद में पारंगत होकर निकलते है, उसके बाद उनकी गुरुकुल से छुट्टी हो जाती है, जिसके बाद की उनकी पढ़ाई बाहरी विद्यालयों में 9वी कक्षा से शुरू होती है।
वेद तो हमारी संस्कृति के मूलाधार है और उसका संरक्षण कर ये गुरुकुल न सिर्फ हमारी संस्कृति का रक्षा करने का महान कार्य कर रहे है अपितु वे हमारे उस प्राचीन महान संस्कृति के सच्चे ध्वजवाहक है जिसे मुगलों और अंग्रेजो ने अपने पैरों तले रौंदने की भरषक कोशिश की लेकिन लगता है अभी भी ये गुरुकुल उनकी इस कोशिस को चुनौती देते हुए धर्मावलम्बी जनता के सहयोग से शान से चल रहे है।
क्योंकि नाम के लिए गुलामी तो खत्म हो गई लेकिन उसके बाद भी तथाकथित आजाद सरकारों द्वारा हमारे सांस्कृतिक प्रतीकों प्रति वैसा ही रवैया जारी रहा। बहुत शर्म आ रही है हमारी सेक्युलर सरकारों पर जिन्होंने आजादी के बाद भी हमारे संस्कृतिक गौरव के प्रतीकों को बचाने के जगह उसके अपने हाल पर छोड़ दिया गया।
क्या ऐसे गुरुकुल केंद्र हर जिला हर राज्य में नहीं होना चाहिए जहाँ धर्म की शिक्षा दी जाए और हमारी प्राचीन विद्या के विरासत को संजो कर रखा जाए।
केवल सरकारों के उपेक्षा के कारण ही ये केंद्र भी अपनी आस्तित्व का जंग लड़ रहे है क्योंकि वेद का ज्ञान कराने के बाद उन विद्यार्थियों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। इन छः वर्षों में उनको वेद को कंठस्थ कराने के अलावा कुछ और नहीं पढ़ाया जाता है जैसे संस्कृत व्याकरण इत्यादि भी, अन्य विषयों की बात तो छोड़ ही दीजिए।
वेद का ज्ञान जरूरी है लेकिन आज के समाज में जीविकोपार्जन के लिए सिर्फ यही ज्ञान पर्याप्त नहीं है। इसलिए कोई परिवार अपने बच्चों को घर से दूर यहाँ पढ़ने भेजने के लिए तुरंत हिम्मत शायद ही जुटा पाता होगा।
कई नेता मदरसों को आधुनिक बनाने की बात जब तब करते रहते है और मुसलमानों के एक हाथ में कंप्यूटर और दूसरे हाथ में कुरान की बात करते थकते नहीं लेकिन क्या हिन्दुओ के देश मे ही बहुसंख्यक हिन्दुओ को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि उनके धार्मिक शिक्षा केंद्रों को भी सरकार से अनुदान मिले और उसकी हालत सुधरे ताकि अन्य लोग भी उस क्षेत्र में जाने की हिम्मत जुटा सके।
     क्या हम हिन्दू यहाँ दोयम दर्जे के नागरिक है जहाँ हिन्दुओ को छोड़ कर सभी प्रकार के अल्पसंख्यक धर्म संप्रदायों को अपना संरक्षण करने का अधिकार है और हम इतने साल की गुलामी झेलने के बावजूद, अपने बच्चों को स्कूल में गीता तक नहीं पढ़ा सकते?

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