“यूनानो-मिस्रो-रोमाँ सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी, नामो-निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे-ज़माँ हमारा”
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ऐसी कौन सी बात है कि इतने बड़े-बड़े युनान, रोम एवं मिस्त्र की संस्कृति धुल में मिल गई, इसाइयत एवं इस्लामियत के झंडाबरदार जहाँ भी गए वहाँ की संस्कृति को नष्ट करके अपने में मिला लिया, लेकिन भारत में लगभग हजार वर्षो के शासन के उपरांत भी हमारी संस्कृति का बाल भी बांका न कर सके। क्या उन लोगो ने इतने सालो में इस संस्कृति को नष्ट करने का जरा भी प्रयास नहीं किया? अगर किया तो ऐसी कौन सी बातें है कि सारी दुनिया फतह करने वाले भारत में आकर परास्त हो गए।
आखिर हमारी यह सांस्कृतिक अमरता का क्या कारण है, क्या इसी तरह गीत गाते रहने से हमारी संस्कृति सुरक्षित रह पाएगी, या हम इसे सचमुच ‘अमर’ मान बैठे है और हमारी जिम्मे बस यह गीत गाना ही रह गया है।
नहीं ऐसा सोचना भी हमारी भयंकर भूल होगी। हमारी संस्कृति जो भी कुछ बात है जो इसकी हस्ती अब तक नहीं मिटा सका है तो वो है हमारी ‘संघर्ष करने की प्रवृति’। यह हमारी धरती माता ही ऐसी है, जब-जब लगा कि हम हार रहे है हमारा मस्तक झुक रहा है, तब-तब उसके गर्भ से कोई न कोई वीर पुत्र उत्पन्न हुआ है जो हमारी संस्कृति एवं धर्म की रक्षा कर सके।चाहे महाराणा प्रताप हो या शिवाजी जिन्होंने आजीवन मुगलों की दासता स्वीकार नहीं की, या गुरु अर्जुन देव हो या वीर हकीकत राय जिन्होंने अपना सर कटाना श्रेयस्कर समझा बजाए कि धर्म परिवर्तन के, या चाहे गुरु नानक देव, संत कबीर एवं संत कबीर एवं तुलसी जैसे अनेक महान संत हो जिन्होंने समाज के अंदर एक नई जीवन शक्ति का संचार किया और लगभग मृतप्राय सा पड़ा समाज को संजीवनी प्रदान की।चाहे पद्मिनी जैसी हजारों वीरांगनाए हो जो अपने सतीत्व एवं धर्म की रक्षा के लिए धधकते अग्नि में कूद पड़ी।
अगर हमारा संस्कृति साँस भी ले पा रहा है तो इन्हीं असंख्य बलिदानों के बदौलत जिन्होंने अपने खून के एक-एक कतरे से इस धरती को सींचा है न कि इस तरह केवल अमरता के गीत गाने से।
लेकिन आज एक बार फिर चारो ओर अंधकार एवं निराषा का माहौल व्याप्त हो गया है, एक अदना सा देश भी भारत को आँख दिखा रहा है और हम मन मसोस कर रह जा रहे है। हमारी रगों में कायरता घर करता जा रहा है। लेकिन इन सबका कारण क्या है?
सत्य एवं अहिंसा का विकृत स्वरूप का प्रचार यानि सदगुण विकृति का कुप्रचार ही इस समस्या का मूल कारण है। आज हमारे मन में यह बैठा दिया गया है कि हमने जो कुछ भी पाया है (अपनी वर्तमान आजादी) इसी सत्य एवं अहिंसा के पुण्य प्रताप से, और हम अपने कायरता जा राग अलापने में लगे है। लेकिन वास्तविकता इसके ठीक उलट है। हमने जब-जब यह सदगुण विकृति का प्रवृति अपनाया है तब-तब हमने सिर्फ खोया, खोया और खोया ही है और हमने अपना लक्ष्य तभी पाया है जब हम इस सदगुण विकृति का चोला उतार फेंका है और जैसे को तैसे की तरह जबाब देना सिख लिया है।
आजकल हमे अहिंसा की ताकत समझाई जा रही है, जो वर्षो पहले नाकाम हो चुकी है। हमे कायरता की बूटी पिलाई जा रही है, धर्मनिरपेक्षता एवं सहिष्णुता का ढोंग रच कर हवा बनाया जा रहा है और हमारी अधिकांश भोली-भाली जनता इनके झांसे में आ भी रहे है और आएँगे भी क्यों न, आखिर 150 वर्ष पुरानी गुलामी में जो पल रही है।
जी हाँ, 150 वर्ष पुरानी गुलामी। हमारी आखिरी क्रांति सन 1857 ईस्वी में हुआ था जब पूरा समाज कायरता के बंधन को तोड़कर अंग्रेजो से खुल कर लड़ा था। लेकिन इस क्रांति को दबाने के पश्चात अंग्रेजो ने ऐसी हवा बनाई कि हम लगभग पूरी तरह इसमें फस गए और हममें कायरता घर कर गई जो अंग्रेजो के जाने के बाद भी पूरी तरह नहीं मिट सका है।
गाँधी जी भी अंग्रेजो के इसी प्रयोग का एक हिस्सा मात्र थे जो उनलोगों द्वारा भारतीय जनता पर किया गया।
आइए बात करें सन 1857 की क्रांति के बाद क्या हुआ। इस क्रांति को दबाने के पश्चात अंग्रेजो ने अपनी शासन पद्धति में अनेक बदलाव किए। सबसे पहले उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से सरकार लेकर रानी विक्टोरिया के हाथ में स्थानांतरित कर दिया क्योकिं लोगो का गुस्सा कंपनी के प्रति चरम पर था। फिर नवीन सामग्री के नाम से एक घोषणा पत्र अंग्रेजो ने हिंदुस्तान भर में प्रचारित करवाया।उसमें यह पूरा प्रावधान था कि लोगो को लगे कि रानी उनकी भलाई करना चाहती है, खासकर उसमें घोषणा कि ब्रिटश सरकार ब्रिटिस हिंदुस्तान के नेटिवो के धर्मो में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगी। क्योकिं क्रांति भडकने का मूल कारण में यह भी एक था कि यह ब्रिटिस सरकार हम दोनों हिन्दू और मुसलमानों को इसाई धर्म में परिवर्तित करा देगी। इन सभी घोषणाओ से कुछ भारतीय नेता इनके झांसे में आ गए और अंग्रेजो का गुणगान करने लगे।लेकिन यह क्रम केवल 1900 तक ही चला एक बार फिर जनता जागने लगी और इसका प्रभाव बंग-भंग आंदोलन के समय स्पष्ट देखा गया। अंग्रेज सरकार हिल गई और उसे अपना यह बंगाल विभाजन वापस लेना पड़ा और तो और उसने अपना राजधानी कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट कर लिया।
इसके बाद अंग्रेज अधिक सतर्क हो गए और तरह-तरह के चालबाजिया चलने लगे। उन्हीं में एक मोहरा उन्होंने गाँधी के रूप में खेला।
इस खेल में अंग्रेजो ने गाँधी के अहिंसा के सामने अपना घुटना टेकने का अभिनय करना शुरू कर दिया। जिसका भारतीय जनता पर व्यापक एवं विस्तृत प्रभाव पड़ा। इससे जनता को स्पष्ट संदेश गया कि जो अंग्रेज बम से नहीं झूक रहा है वह अहिंसा के सामने बेबस नजर आ रहा है। जनता अंग्रेजो के अत्याचारों से परेशान थी, उसे गाँधी की अहिंसा उम्मीद की किरण नजर आया। फिर क्या, सारी-की-सारी जनता गाँधी के पीछे-पीछे हो ली।
अंग्रेज भी अपने चाल में सफल होते दिख रहे थे क्योंकि उन्होंने तो भारतीय जनता के आंदोलन की दिशा ही चेंज कर दी। कल तल जो व्यक्ति अंग्रेजो के खिलाफ क्रांति की बात करता था आज वही व्यक्ति गाँधी के पीछे खड़ा हो अहिंसा का नारा बुलंद किए हुए था। अंग्रेज इसे और हवा देने में जुट गए। लेकिन क्रांतिकारी भी चुप नहीं बैठे थे, भगत सिंह एवं चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिवीरो ने इस लौ को भड़काने का काम किया तथा सुबास चंद्र बोस ने आजाद हिंद फ़ौज के माध्यम से इसे मूर्त रूप देने का प्रयास किया।कुल मिला कर अंग्रेजो को यह लग गया कि अब इस देश में रहना खतरे से खाली नहीं है तो जाते-जाते भी वे अपना चाल चल गए, वैसा चाल जिससे भरतीय जनता भ्रमित हमेशा भ्रमित रहे। उन्होंने ऐसा प्रदर्शित किया कि हम उन अहिंसावादियों के सामने घुटने टेक कर भाग रहे है। और इससे जनता के मन में और स्पष्ट संदेश गया कि जीत अहिंसा की हुई है और वे इस अहिंसा को ही सबकुछ मानने लगे और अभी तक हम इस प्रभाव ने नहीं मुक्त हो पाए है। यहीं मुख्य कारण भी है हमारी इस कायरता का।
Alok pandey