पुरबिए को सम्मान

पुरबिए को सम्मान

by आलोक

क्या आप लोग जानते है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगो को आज भी क्यों कही ‘ पुरबिया’या अन्य बात इत्यादि कह कर अपमानित किया जाता है. क्योंकि आजादी के लड़ाई में हम लोगो ने सबसे ज्यादा भाग लिया था इसलिए अंग्रेजो के घृणा के पात्र बन गए थे. 1857 में तो केवल उत्तर भारत ने ही लड़ाई में हिस्सा लिया और बाकी के प्रदेश तो निष्क्रिय जैसे रहे. अतः जिन प्रदेशो के लोगो ने अंग्रेजो का समर्थन किया था या सहानुभूति दिखाई थी उन लोगो के उपर विशेष कृपा की गई. जैसे सिख एवं नेपाली लोगो पर. ये बात खुद अंग्रेजो के दस्तावेजो से ही साबित होती  है. 1857 की लड़ाई से पहले उत्तर भारत में एक “बंगाल आर्मी” नामक पलटन रहती थी और उसमे अधिकांशतः बिहार एवं उतर प्रदेश के लोगो की भर्ती होती थी. जहाँ एक ओर देश में सब आपस में ही एक दुसरे से जलते-लड़ते रहते थे वहाँ बंगाली आर्मी एकता की मिशाल बन कर उभरी थी.
बंगाली पलटन के बारे में सर जान लारेंस कहते हैं, “बंगाली पलटन का भाई-चारा और एकताबोध हमारे लिए खतरनाक साबित हुआ है.” एक अन्य जगह कहता है, ‘बंगाल आर्मी में अधिकतर सिपाही पुरबिये थे. बंगाल आर्मी एक महान किस्म का भ्रातृ-संघ बन गई थी जहाँ सभी सदस्य सहचिंतन और समान आचार-व्यवहार के लिए तत्पर थे.” (सर जान लारेंस की जीवनी, द्वितीय खंड, पृ० 289-90)
1857 से पहले बिहार, उत्तर प्रदेश के इन्हीं पुरबियों को  अंग्रेज ‘मार्सल रेसेज’ (यौधेय जातियां) मानते थे. और इन्हीं के कंधे पर अंग्रेजो ने अपना सम्राज्य दूर-दूर तक फैलाया था. अफगानिस्तान हो या वर्मा या चीन, सम्राज्य विस्तार और व्यापर की रक्षा हेतु इसी ‘बंगाल आर्मी’ को हमेशा भारत से बाहर भेजा जाता था.
सीक्खो का स्वतन्त्र राज्य भी बंगाल आर्मी द्वारा ही खत्म किया गया था. स्वयं जान लारेंस इन पुरबियो के बिषय में सोचता हुआ विचार व्यक्त करता है, “चूँकि ये लोग एक ही प्रदेश से आते थे. एक ही बोली बोलते थे. अतः उनके आपस में गहरे संबंध थे. चूँकि उनमे खून का संबंध और सामंजस्य था इसलिए ये सैनिक भाइयों की तरह सोचते थे, काम करते थे. पूरी ‘बंगाल आर्मी’ एक भ्रातृ-संघ जैसी थी. इन गलतियों  को आगे चलकर हमे सुधारना होगा. (सर जान लारेंस की जीवनी, द्वितीय खंड, पृ० 317-18)
इस जनक्रांति के बाद अंग्रेजो ने जब 1858 में पील कमिशन की सिफारिस पर सेना की पुनर्रचना की तो यही कार्य सबसे पहले किया. बंगाल आर्मी का रूप बदलकर उसे सिक्ख, पंजाबी, मुसलमान, पहाड़ी, जाट, राजपूत और गोरखा सेनाओं का रूप दे दिया. साथ ही उनमें अपनी जाति या कुल के प्रति अभिमान जगाने का प्रयास किया और बाद में ऐसा ही हुआ. अपवाद था तो केवल सिक्ख और गोरखा पलटनों का क्योंकि इन्होने अंग्रेजो के प्रति वफादारी क्रांति के दौरान प्रमाणित कर दी थी.
अंग्रेजो ने सेना भर्ती संबंधी निति में जो परिवर्तन किए उसके अनुसार उन्होंने उन्हीं क्षेत्रो और जातियों के लोगो को भर्ती किया जिन्होंने जन-क्रांति में हिस्सा  नहीं लिया था और अंग्रेजो के प्रति वफादार बने रहे थे. इसलिए अब से ऐसी वफादार जातियां ही ‘मार्शल रेसेज’ घोषित हुई, और जो विद्रोही थे उनको ‘नॉन-मार्शल’ रेसेज (जैसे पुरबिए) घोषित किया गया. सेना में अब उनके लिए कोई स्थान नहीं रहा.
दुर्भाग्य  स्थिति यह है कि पूरब-पश्चिम, लडाकू-गैर लड़ाकू के खाने में बाँटकर अंग्रेजो ने ‘पुरबिये’ (गदर के पहले तक जिन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था) कहे जाने वाले लोगों का मनोबल गीरा कर उनको हिकारत की दृष्टि से देखना शुरू किया. अंग्रेजो के इसी परिवर्तित दृष्टिकोण के कारण बाद में धीरे-धीरे ‘पुरबिये’ शब्द का अभिप्राय बदलकर गंवार, अनपढ़, पिछड़ा हुआ वर्ग हो गया. और आज भी आजादी के इतने वर्ष बाद भी पूर्वी-उत्तर प्रदेश तथा बिहार से आने वाले मजदूर-किसान को दिल्ली व पंजाब में इसी अर्थ में ‘पुरबिये’ कहकर लोग संबोधित करते है?

 

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