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पुस्तक समीक्षा- सत्य के साथ मेरे प्रयोग (मो० क० गाँधी)

पुस्तक समीक्षा
सत्य के साथ मेरे प्रयोग (मो० क० गाँधी)
by आलोक देश पाण्डेय

आज गाँधी जी की बहुचर्चित पुस्तक “सत्य के साथ मेरे प्रयोग” पढ़ी
इसने मुझे गाँधी के खिलाफ मेरे मतों को ढीला करने के बजाए और सुदृढ़ ही किया।

प्रस्तुत है उनके पुस्तक के कुछ अंशो की समीक्षा:-

1. अहिंसा की व्याख्या:-

 “गाँधी जी लिखते है कि बचपन में मैंने मनुस्मृति पढ़ा, यह अहिंसा नहीं सिखाती।
उसको पढ़ कर मैंने बहुत सारे खटमलों को धर्म समझ कर मार डाला।”

अब इसमें सोचने वाली बात यह है कि बचपन में जिन खटमलों को मारना उन्हें धर्म लगता था क्या उन्हें यह कार्य अधर्म और हिंसा से भरा लगने लगा? तभी तो उन्होंने यह बात लिखी।
वैसे वे किसी दूसरे की खटिया का खटमल मारने तो गए नहीं होंगे। अपने ही खटिया के खटमल का वध किए होंगे। अगर हम इस कार्य को अधर्म मानते है तो हमें उन सभी कार्यों को भी अधर्म मानना चाहिए जो हमें अपनी रक्षा के लिए शत्रु के प्रति करनी चाहिए, फिर तो श्रीराम ने भी राक्षसों का वध कर घोर अधर्म कर दिया।
लेकिन मनुस्मृति ने खटमल, सर्प इत्यादि जो नुकसान पहुँचा सकते है उनका वध धर्म सम्मत बताया है।
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि किसको धार्मिक माने, गाँधी या श्रीराम को।

लेकिन बात यहाँ केवल खटमल को मारने की नहीं है। यह भले ही उनका व्यक्तिगत मामला हो सकता है लेकिन क्या आप अनुमान लगा सकते है कि ऐसे सिद्धांत वाले व्यक्ति के हाथ में जब राजनैतिक शक्ति आया होगा तो वह कितना नुकसान किया होगा।

2. अंग्रेजो के प्रति सहानुभूति:-

इतने अहिंसक सोच रखने के बावजूद 1906 में जुलू विद्रोह के दौरान वो अंग्रेजो के लिए नीति-अनीति, धर्म-अधर्म का ख्याल छोड़ कर किस प्रकार अंग्रेजो से अपने आप को भी सेना में भर्ती कर लेने का अनुरोध किया, उन्हीं की जुबानी-

“जुलू लोगों से मेरी कोई दुश्मनी न थी। उन्होंने एक भी हिंदुस्तानी का नुकसान नहीं किया था। ‘विद्रोह’ शब्द के औचित्य के बिषय में भी मुझे शंका थी। किंतु उन दिनों मैं अंग्रेजी सल्तनत को संसार का कल्याण करने वाली सल्तनत मानता था। मेरी वफादारी हार्दिक थी। मैं सल्तनत का क्षय नहीं चाहता था। अतः बल-प्रयोग संबंधी नीति-अनीति का विचार मुझे इस कार्य को करने से रोक नहीं सकता था।”

उसके बाद उन्होंने गवर्नर को स्वयंसेवक के तौर पर सेना में भर्ती होने के लिए पत्र लिखा जिसे गवर्नर ने तुरंत स्वीकार कर लिया और उन्हें सार्जेंट मेजर का पद दिया गया।

अब इसमें सोचने वाली बात है कि जो व्यक्ति अहिंसा का पुजारी था वहाँ दक्षिण अफ्रीका में आश्रम बना त्याग पूर्वक रहता था उसको अंग्रेजो की सहायता करने को प्रेरित होने में क्षण मात्र भी देरी न लगा और अंग्रेजो के इस अधर्म युद्ध में साथ देने लगा।
क्योंकि गाँधी आगे खुद स्वीकारते है कि जुलू निर्दोष थे यहाँ लड़ाई नहीं बल्कि मनुष्य का शिकार हो रहा था।

अंग्रेजो के प्रति उनकी यह सहानुभूति प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारत आने के बाद भी बनी रही और उस युद्ध में सहायता के लिए भी उन्होंने अपने अहिंसा के सिद्धांत से समझौता कर लिया।

वायसराय को मदद देने का आश्वासन देते हुए उन्होंने लिखा है कि-
“यदि मेरे लिए यह संभव होता तो मैं ऐसे समय होमरूल (स्वशासन) आदि का उच्चारण तक न करता, बल्कि मैं समस्त शक्तिशाली भारतीयों को प्रेरित करता कि साम्राज्य के संकट के समय वे उसकी रक्षा के लिए चुपचाप खप जाएँ।”

मतलब उस समय के तत्कालिक प्रभावशाली राष्ट्रवादी नेताओ ने मांग की थी युद्घ में हमारी सहायता लो लेकिन बदले में हमें और आजादी दो जिसे होमरूल आंदोलन कहा गया। लेकिन गाँधी ने उस मांग के औचित्य पर भी सवाल खड़ा कर दिया और अंग्रेजो के लिए निस्वार्थ भाव से बिना शर्त सेवा करने का विचार रखा।

उसके बाद गाँधी की टोली निकल पड़ी गांव-गांव घूम कर सैनिकों के भर्ती के अभियान पर। हालाँकि उस समय होमरूल आंदोलन के प्रभाव के कारण जनता ने उनकी टोली की दुर्दशा कर दी और रास्ते में उनलोगों को भोजन तक दुर्लभ हो गया। पैसे देने पर भी यात्रा के लिए कोई अपना बैल गाड़ी देने को तैयार न था। यह बात उन्होंने खुद स्वीकारी है।

3. खिलाफत और गौरक्षा:-

इसी तरह जब उन्होंने मुसलमानों की सहानुभूति जुटाने के लिए विदेशी खिलाफत आंदोलन का भी समर्थन किया तब स्वामी श्रद्धानंद ने इसके बदले मुसलमानों से गौरक्षा का प्रस्ताव पारित करवाने का आग्रह किया ताकि हिन्दू-मुस्लिम एकता का सच्चा स्वरूप सामने आ सके लेकिन इसका विरोध गाँधी ने ही कर दिया और खिलाफत के बदले किसी भी शर्त को जोड़ने से इंकार कर दिया।
और इसके बदले में हिन्दुओ को मिला क्या? मोपला में भारी नरसंहार और धर्म परिवर्तन। और गाँधी ने उन दंगाइयों का भी बचाव किया।

4. प्रतिज्ञा का पाखंड:-

गाँधी जी हमेशा भोजन संबंधित प्रयोग करते रहते थे, जिसमें वे बात-बात पर प्रतिज्ञा ले लेते थे। इस क्रम में उन्होंने दूध न पीने का प्रतिज्ञा ले लिया, क्योंकि उनका मानना था कि दूध मनुष्य का आहार नहीं है।
लेकिन 1919 में एक बार जब वे बीमार पड़े तो मरणासन्न अवस्था में चले गए। उस स्थिति में डॉक्टर ने बिना दूध के उनका स्वस्थ होना असंभव बताया। लेकिन जब उन्होंने डॉक्टर को अपनी दूध न पीने की प्रतिज्ञा बताई तभी पीछे से उनकी पत्नी बोली कि आप भले ही गाय भैस का दूध न पियेंगे लेकिन कम से कम बकरी का दूध पी लीजिए।
और गाँधी जी जीने का लोभ छोड़ न सके और तुरंत हामी भर दी, उसके बाद वे मृत्यु पर्यंत अपने साथ बकरी रखते रहे।
हालांकि उन्होंने इस पुस्तक में स्वीकार किया है कि मैंने दूध न पीने की प्रतिज्ञा लेते समय किसी जानवर की कल्पना न की थी। लेकिन फिर भी सत्याग्रह की लड़ाई के लिए जीने की इच्छा रखकर अपने सत्य को लांछित किया।

इसमें सोचने वाली बात यह है कि जब वे मान चुके थे कि उनकी प्रतिज्ञा खंडित हो चुकी है तब फिर जीवन भर एक बकरी किसको दिखाने के लिए रखते थे, उनका आहार संबधित प्रयोग व्यक्तिगत था इससे किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी।

इन सबके बीच उनकी एक खूबी भी इस किताब में प्रकट होती है और वह है सत्य को स्वीकारने का उनका साहस। शायद यही एक चीज है जो उनको विशिष्ट बनाती है। उन्होंने अपनी जो छोटी-छोटी गलतियों को भी स्वीकारा है उस साहस ने बड़ो-बड़ो को प्रभावित किया है।
लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं हो जाता कि उनकी सभी नीतियां देश के लिए कल्याणकारक ही है और उसकी आलोचना नहीं की जा सकती।

सत्य बोलने और त्याग की पराकाष्ठा ने जरूर उन्हें एक संत की श्रेणी में ला खड़ा किया था, उनका हृदय निर्मल हो सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि एक संत राजनीतिक दृष्टिकोण से भी सफल हो सकता है। अतः राजनीतिक रूप से उनका आकलन करते समय हमें उनके राजनीतिक फैसलों के प्रभावों पर ध्यान देना चाहिए, न कि उनके रहन-सहन और त्याग पर।
आलोक

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