मेरी पहली हिमाचल यात्रा (भाग 3)
Part 3 (Day 07: 19 जून 2019)
मणिकर्ण यात्रा…
आज मैं कुल्लू जिले में था आशीष जी के घर। सुबह उठते ही उन्होंने मुझे आस-पास की बहुत सारी घूमने वाली जगहों के बारे में बता दिया। सबसे पहले हमने मणिकर्ण जाने और फिर अगले दिन वही से खीरगंगा जाने का प्लान बनाया।
आशीष जी का घर एकदम हाइवे पर ही था। सो नहा खा कर मणिकर्ण के लिए निकल पड़ा।मणिकर्ण जाने के लिए हमें भूंतर से बस पकड़ना पड़ता है जो कि कुल्लू से लगभग 10 किमी पीछे है। हमने वहाँ से कुल्लू वाली बस पकड़ ली तथा बीच रास्ते में भूंतर उतर गया। वहाँ से एक दूसरी बस जो मणिकर्ण होकर जाने वाली थी खुलने ही वाली थी। सामान्यतः इस रूट में जाने वाली बसे कैसोल, मणिकर्ण होते हुए बरसैनी तक जाती है जहाँ से खीरगंगा ट्रेक शुरू होता है। मणिकर्ण में एक बहुत बड़ा गुरुद्वारा था। वही हमें रात्रि विश्राम करना था। वहाँ हमेशा लंगर भी चलता रहता है।
हमारी यात्रा भुंतर से लगभग 10:30 में शुरू हुई और उसके बाद दिखना शुरू हुआ असली नजारे। जब बस पार्वती घाटी में ब्यास नदी के किनारे-किनारे चारो ओर से घिरे बहुत ऊँचे-ऊँचे पहाड़ो से होकर गुजर रही थी तो फिल्मों में दिखाए गए दृश्य याद आने लगे। वाकई अद्भुत दृश्य था वो और हो भी क्यों, जीवन में पहली बार इतने ऊँचे-ऊँचे पहाड़ो के बीच आया था तो मुझे रोमांच आना ही था। पूरे रास्ते बस की खिड़कियों से फोटो खीचते चलता रहा लेकिन दृश्य थे कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
1 बजे के आसपास मैं मणिकर्ण पहुँच गया। वहाँ उतरने के बाद पहले की अपेक्षा हल्की-हल्की ठंडक महशुस होने लगी। वहाँ गुरुद्वारे के साथ-साथ प्रसिद्ध मंदिर भी थे। साथ ही था एक बहुत बड़ा बाजार। बाजार में घूमते वक्त एक लकड़ी से बने सामानों के दुकान के सामने रुक गया। वहाँ वस्तुएं बहुत ही खूबसूरत और सस्ती भी थी। शायद वैसे वस्तुएं हमारे यहाँ मिलती ही न हो। अतः मैं रुक कर एक एक चीज का निरीक्षण करने लगा। निरीक्षण के क्रम में घर पर वीडियो कॉल कर दिया बस फिर क्या था, ये चीज खरीद लो-वो चीज खरीद लो और कुछ ही देर में बहुत सारे छोटे छोटे समान खरीद भी लिया। उस दुकान की मालकिन एक बूढ़ी दादी थी, उस एक घण्टा के क्रम में उनसे अच्छी खासी दोस्ती भी हो गई। मैंने तो पुरे दुकान में घुस कर अधिकांश वस्तुओं के मूल्य पता कर लिए। इसी क्रम में विचार आया कि कल ट्रेकिंग पर जाने से पहले अपना सारा भारी वाला सामान इन्हीं के यहाँ क्यों न रख दूं? वो स्वभाव से बहुत अच्छी लग रही थी और फिर क्या? मैंने प्रस्ताव दिया और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। मैंने उनको शाम को वापस बैग को रखने के लिए आने की बात कह गुरुद्वारे की ओर चल दिया।
#मणिकर्ण का इतिहास:-
पौराणिक मान्यता है कि इस जगह पर भगवान शंकर ने पार्वती जी के साथ 11,000 हजार वर्षों तक तप किया था। एक दिन पार्वती जी की चिंतामणि यहां गिर पड़ी जिसको खोजने के लिए भगवान शंकर के नेत्रों से नैना देवी पैदा हुई, जिन्होंने शेषनाग से इस चिंतामणि को छुड़ाया। इसकी वजह से ही इस जगह का नाम मणिकर्ण पड़ गया।
इसके अलावा यहाँ सीखो के आदि गुरु गुरुनानकदेव जी ने भी यात्रा की थी और कई चमत्कार किए थे। मंडी निवास के दौरान दसवें गुरु गोविंद सिंह जी भी पाँच प्यारो के साथ यहाँ पधारे थे। बाद में सन 1940 में संत बाबा नारायण हरि जी ने यहाँ गुरुद्वारा स्थापित किया और लंगर की शुरुआत की। तब से अनवरत यह क्रम जारी है।
समान रखने की बात करने के बाद मैंने गुरुद्वारा जाकर मत्था टेका और वही लंगर में भोजन भी किया। भोजन के बाद वहाँ रहने के लिए कमरे बुक करने चला गया। वहाँ सब चीज फ्री है। चूँकि मैं अकेले था तो मुझे कोई कमरा न देकर एक हॉल दे दिया गया जिसमें अनेक व्यक्तियों को सोना था। हमको एक पर्ची दी गई जिसको दिखाकर सोने वक्त हमें बिछौना, रजाई और तकिया मिल सकती थी। वहाँ रात में बहुत ठंड लगती है। यह सब करने में 4 बज गया।
मणिकर्ण में एक गर्म गुफा भी है जो गुरुद्वारे के अंदर ही है। जैसे राजगीर से पहाड़ो के अंदर से गर्म पानी निकलता है वहाँ जगह-जगह ऐसे स्त्रोत फुट रहे थे। गर्म गुफा से होकर निकलने से पसीने निकलने लगते है। एक जगह तो ऐसे ही एक स्त्रोत में चावल और सब्जी पकाने के लिए रखा था। और पानी पूरी तरह उबल रहा था। नदी के किनारे तो कई जगह से धुंआ जैसा उठ रहा था जो उस गरम पानी के वाष्प वाला धुंआ था।
वहाँ नदी के दूसरी तरफ एक ऊँची पहाड़ी थी उस पर बहुत ही घने जंगल थे जो बरबस ही मुझे आकर्षित कर रहे थे। एकांत अनुभव करने की दृष्टि लिए मैं उस पहाड़ पर जंगलो के बीच चढ़ने लगा। मुझे लगा कि ऊपर कोई नहीं होगा। लेकिन वहाँ पहले से ही पर्यटकों के कई ग्रुप जगह-जगह बैठे हुए मिल गए। हो सकता है मेरी तरह ही कई लोगो को वह आकर्षक लगी होगी सो एकांत की तलाश में चले आए होंगे अतः मैं उससे भी ऊपर बढ़ता गया जहाँ मैं एकांत अनुभव कर सकू। वैसी जगह भी मिल गई लेकिन यह ज्यादा देर नहीं रही क्योंकि थोड़ी ही देर बाद एक व्यक्ति सर पर मोटरी रख ऊपर से नीचे आते हुए दिख गया। मुझको देखा तो वही सुस्ताने के लिए बैठ गया। वह वही का स्थानीय था। पूछने पर बताया कि वह एकदम चोटी पर से आ रहा है और वह हिमालय में स्थित रत्नों की खोज में गया था। उसके साथ जो गठरी थी उसमें उसका रासन-पानी और बिछौना वैगेरह था जिसकी सहायत से ही वह 5-6 दिन लगातार पहाड़ो पर घूमते हुए बिता सकता था।
उसके अनुसार वह अभियान में सफल होकर आया था और बहुत सारे रत्न खोज कर लाया था लेकिन उसने मुझे दिखाने में असमर्थता जाहिर की क्योंकि वे सारी चीजे उसकी गठरी के एकदम बीच में थी जिसे वह अच्छे तरीके से पैक कर चुका था। उसके अनुसार यह बहुत रिस्की कार्य था क्योंकि इसके लिए उसे कई शंकरी गुफाओ में प्रवेश करना पड़ता था जिसका कभी भी बंद हो जाने का खतरा भी बराबर बना रहता है। उसके जाने के कुछ ही देर बाद दो लड़के ऊपर से उतरते दिखे। वे लोग जंगल से एक पतला सा तना काटकर ला रहे थे लेकिन उनलोगों के आपसी बातचीत से पता चला कि वे वन विभाग से डर भी रहे थे। वे लोग हमसे कुछ ही दूरी पर रुक गए और हमको भी बैठे-बैठे एक-डेढ़ घण्टे से ज्यादा हो गया था तो मैं वहाँ से चलते बना।
इस दौरान मैंने अपना सारा जरूरी सामान एक छोटे से बैग में शिफ्ट कर लिया।
कल मुझे यहाँ से खीरगंगा ट्रेक पर जाना था। इसलिए हमें कम वजन ही साथ में ले जाना था। अतः जरूरत की सारी चीजें एक छोटा सा बैग में कर के एक बड़ा वाला बैग वो बूढ़ी आंटी जी के दुकान पर रख आया। शाम का खाना भी लंगर में ही खाया। उसके बाद पर्ची दिखा कर रजाई इत्यादि ले अपने सोने के जगह पर चला गया। रात अच्छे से कट गई।
क्रमशः
(नोट:- हमारी यह यात्रा कुल 13 दिनों की थी, सो ज्यादा लंबा पोस्ट लिखने से बचने के लिए इसे हम पार्ट वाइज और डेट वाइज ही पोस्ट कर रहे है, हर पोस्ट के नीचे आपको इस यात्रा से जुड़े सभी पोस्ट लिंक मिल जाएंगे)
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