1944 में आजाद हिंद फ़ौज हार चुकी थी, लड़ाई खत्म हो चुकी थी हमारे आजादी के सिपाही जो जिंदा बच गए थे उनको बंदी बना कर लाया गया। फैसला लिया गया कि इन सभी सिपाहियों को लालकिला में खुला कोर्ट मार्सल करके फासी पर लटका दिया जाए जिससे हमारी सेना (उस समय भारतीय सेना में अधिकांश भारतीय जवान ही थे) का मनोबल और बढ़ जाएगा।
लेकिन उस समय हमारे देश के वे तथाकथित नेता क्या कर रहे थे?
जब लड़ाई चल रही थी तो अंग्रेजो ने प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था, फारवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओ को गिरफ्तार कर लिया गया था और चारो ओर यह प्रोपगैडा फैला दिया था कि जापानियों ने भारत पर आक्रमण कर दिया है जिससे जनता एवं साधारण सैनिक भुलावे रहे।©आलोक
लेकिन ये उस समय के हमारे तथाकथित नेता सुभाष चंद्र बोस से अपनी पुरानी दुश्मनी का बदला निकाल रहे थे। उनलोगों ने जरा भी राष्ट्रिय हित का ध्यान न रखते हुए उनका समर्थन करना और जनता द्वारा उनके समर्थन में आंदोलन छेड़ना तो दूर, 1942 के कुछ महीनों में नेहरु खुले मंच से घोषणा करते थे कि “मेरी इच्छा और क्षमता है कि इन जापानियों से लड़ने के लिए लाखो गुरिल्ले तैयार किए जाए”, क्या नेहरु को वास्तविकता नहीं पता थी, ये वही नेहरु थे जिनकी सरकार ने आजादी के बाद देश में सेना को बनाए रखने को ही गैर जरूरी ठहरा दिया था, वो तो भला हो चीन का जिसके आक्रमण के कारण भारत के पागल नेता संभल गए वरना कुछ ही समय बाद हम 1965 में पाकिस्तानके गुलाम होते। ऐसे व्यक्ति द्वारा ऐसा बयान क्या दर्शाता है (जो सेना को ही गैर जरूरी समझते हो लेकिन सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ ऐसी बयानबाजी)। उस समय आम सैनिक को यह सुन कर क्या लगा होगा? वे इतना इतना थोड़े जानते होंगे कि वास्तविकता क्या है और गलत क्या है सही क्या है। उस अंग्रेजो ने अंग्रेजो ने ऐसे-ऐसे नेताओ का भरपूर उपयोग किया. एक अज्ञेय नामक साहित्यकार थे, वे तो युद्ध मैदान तक पहुच कर सैनिको की हौसला अजफाई कर रहे थे तथाकथित जापानियों के खिलाफ लड़ने के लिए, ऐसे ही कई जाने-माने और प्रसिद्द व्यक्तियों का अंग्रेजो ने भरपूर इस्तेमाल किया.
लेकिन जब यह बात युद्ध खत्म होने बाद आम जनता को पता चला कि यह युद्ध अंग्रेजो और आजाद हिन्द फ़ौज के बिच था, तथा नेता जी हमारे आजादी के लिए ही लड़ रहे थे और उन्हें अपने ही देश के जवानो ने हरा दिया तो वह पूरी तरह इस तथाकथित भारतीय सेना और अंग्रेजो के खिलाफ आक्रोशित हो गई। जगह-जगह उग्र प्रदर्शन होने लगे। सेना का कोई भी जवान के समाज के सामने आने पर उन पर ताने कसे जाने लगे। लोगो ने उनलोगों को समाज में मुँह छिपाने लायक भी नहीं छोड़ा। माताएँ बहने भी नपुंसक कहकर छेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी। इन सब परिस्थियों से सेना में अत्यंत क्षोभ पैदा होने लगी एवं खुद के इस कुकृत्य के लिए शर्मिदंगी महसूस होने लगी।©आलोक
इन परिस्थितियों में तो जवाहरलाल नेहरु जैसे सुविधापरस्त नेता समाज को दिखाने के लिए फिर से वकालत का चोला पहन इन जवानों के पैरवी में उत्तर आए लेकिन वे उस समय कहाँ थे जब ये जवान सीमा पर अपने देश को आजाद कराने के लिए अंग्रेजो से संघर्ष कर रहे थे, तब वे उनको हत्तोसाहित करने में लगे थे।
काश ये समाज उसी समय जाग्रत हो गया होता तो सेना भी उसी समय ही जागृत हो गई होती और एक बार फिर 1857 जैसा दृश्य उत्त्पन हो जाता, युद्ध के मैदान में ये सैनिक अंग्रेजो की पाला छोड़ कर इन सैनिकों के साथ मिल जाते तो ये मुठ्ठी भर अंग्रेज हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाते क्योंकि उनकी सारी ताकत तो द्वितीय विश्युद्ध में लगी हुई थी। 1857 में तो ये समय पर सवधान होने, अपनी गोरी पलटन को समय पर बुलाने और सिखों एवं चंद राजाओ के देशद्रोह के कारण अपना राज्य बचाने में सफल हो गए थे लेकिन अबकि बार समय क्रांतिकारियों के पूरी तरह अनुकूल था अगर ये भारतीय सिपाही विद्रोह कर देते तो अंग्रेजो का तो पुरे देश में कत्लेआम ही मच जाता और हमारा देश क्षण भर में स्वतंत्र हो जाता जिसके पहले राष्ट्राध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ही होते।
आखिर नेता किसे कहते है? जब देश के लिए अनुकूल समय आ रहा हो तो उस परिस्थितियों में समाज को जगाना और लड़ने के लिए खड़ा करना ही तो नेता का कर्तव्य होता है वरना जब-जब जनता बिना किसी नेतृत्व के स्वतः स्फूर्त हो कर जागती है तो सफलता कम लेकिन अराजकता ज्यादा फैलती है और उस बेला में कुछ स्वार्थी लोग श्रेय लेने की होड़ में लग जाते है बजाय कि एक सशक्त नेतृत्व देने के। और इसी मर्म को असली नेता सुभाष जी ने समझा और भिन्न-भिन्न देशों में रह रहे प्रवासी भारतीयों में देशभक्ति की भावना भर कर लड़ने के लिए तैयार किया और देखते-देखते 40000 सेना वाली एक फ़ौज तैयार करके अंग्रेजो से भीड़ गए लेकिन क्या वे भी केवल अपने 40000 सेना से 20 लाख सेना वाली को जितने की उम्मीद कर रहे थे। कहीं न कहीं उनके मन में यह जरुर रहा होगा कि भारतीय सेना अबकि बार भी 1857 की तरह हमारा साथ देगी और थोड़ा-बहुत जापान की सहायता पर निर्भर थे।
लेकिन हाय उनको क्या मालूम था कि जो लड़ाई हम देश के बाहर रह कर, कर रहे है उसी लड़ाई को अपने देश में ही समर्थन नहीं मिलेगा और इसके जिम्मेदार निश्चित रूप से हमारे देश के उस समय के मौजुदा नेता थे। उनके तो एक इशारे पर पूरा देश लड़ने को तैयार बैठा था लेकिन इन अहिंसा के पुजारियों या कायरो ने इन लोगो के समर्थन में एक वाक्य भी नहीं बोला, यहाँ तक कि सुभाष बाबु ने इन लोगो का समर्थन पाने के लिए सभी आपसी मतभेद भुलाकर गाँधी जी राष्ट्रपिता का संबोधन तक दे डाला।
लेकिन इनलोगों ने जनता को जगाने का कार्य नहीं किया बल्कि जनता के स्वतः स्फूर्त होने पर अपनी सुविधापरस्त राजनीती का नमूना जरुर दिखा दिया।
45 दिन चले कोर्ट मार्सल में अंग्रेजो ने अपने चमचों(नेहरु) की सारी दलीले ठुकरा कर आजाद हिन्द फ़ौज के सेनानियों को फांसी का सजा सुना दिया। फटी वर्दी पहने, आधा पेट भोजन किये, बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादूरी के साथ “भारत माँ की आजादी के लिए लड़ने वाले “आजाद हिन्द सैनिकों” को हराकर एवं बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे, जो “महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए” लड़ रहे थे! अगर ये जवान सही थे, तो देश की जनता गलत थी; और अगर देश की जनता सही थी, तो फिर ये जवान गलत थे! दोनों ही सही नहीं हो सकते। सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रुप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रुप में फूटकर बाहर आने लगा। इन सब परिस्थियों को देखते-समझते हुए अंग्रेजो ने उन सबकी फ़ासी रद्द कर दी। लेकिन अब सैनिको की चेतना धीरे-धीरे जागने लगी थी वे किसी भी हालत में अंग्रेजो की गुलामी स्वीकार करने की स्थित में नहीं रह गए थे। भारत के प्रत्येक देशी सैनिक के दिल में देश के प्रति कुछ-कुछ होने लगा और आजाद हिन्द फौज द्वारा भारत की स्वतंत्रता के लिए शुरू किये गये सशस्त्र संघर्ष से प्रेरित होकर रॉयल इंडियन नेवी के भारतीय सैनिकों ने 18 फरवरी 1946 को एचआईएमएस तलवार नाम के जहाज से मुम्बई में अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध मुक्ति संग्राम का उद्घोष कर दिया। उनके क्रान्तिकारी मुक्ति संग्राम ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की। नौसैनिकों का यह मुक्ति संग्राम इतना तीव्र था कि शीघ्र ही यह मुम्बई से चेन्नई, कोलकात्ता , रंगून और कराँची तक फैल गया। महानगर , नगर और गाँवों में अंग्रेज अधिकारियों पर आक्रमण किये जाने लगे तथा कुछ अंग्रेज अधिकारियों को मार दिया गया। उनके घरों पर धावा बोला गया तथा धर्मान्तरण व राष्ट्रीय एकता विखण्डित करने के केन्द्र बने उनके पूजा स्थलों को नष्ट किये जाने लगा । स्थान-स्थान पर मुक्ति सैनिकों की अंग्रेज सैनिकों के साथ मुठभेड होने लगी।
लेकिन आप क्या सोचते है? क्या ऐसे समय में इन गद्दार नेताओं ने इन आजादी के दीवाने का साथ दिया? नहीं-नहीं, ऐसा सोचना भी भयंकर भूल होगी चूँकि देशद्रोहिता इनके रगों में खून बन कर दौड़ती थी, इसलिए इन्होंने उन सैनिको का साथ देना, समर्थन देना तो दूर इन लोगो ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया। नौसैनिकों के मुक्ति संग्राम की मौहम्मद अली जिन्ना ने निन्दा किया व जवाहरलाल नेहरू ने अपने को नौसैनिक मुक्ति संग्राम से अलग कर लिया। मोहनदास जी गांधी जो उस समय पुणे में थे तथा जिन्हें इंडियन नेवी के मुक्ति संग्राम से हिंसा की गंध आती थी , उन्होंने नेवी के सैनिकों के समर्थन में एक शब्द भी नहीं बोला, अपितु इसके विपरीत उन्होंने वक्तव्य दे डाला कि – “यदि नेवी के सैनिक असन्तुष्ठ थे तो वे त्यागपत्र दे सकते थे।”
क्या अपने देश की स्वतंत्रता के लिए उनका मुक्ति संग्राम करना बुरा था? जो लोग देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों पर खेलते थे , जो लोग कोल्हू में बैल की तरह जोते गये, नंगी पीठ पर कोडे खाए, भारत माता की जय का उद्घोष करते हुए फाँसी के फंदे पर झुल गये क्या इसमें उनका अपना कोई निजी स्वार्थ था? इंडियन नेवी के क्षुब्ध सैनिकों ने राष्ट्रीय नेताओं के प्रति अपना क्रोध प्रकट करते हुए कहा कि – ‘हमने रॉयल इंडियन नेवी’ को राष्ट्रीय नेवी में परिवर्तित कर दिया है, किन्तु हमारे राष्ट्रीय नेता इसे स्वीकार करने को तैयार नही है। इसलिए हम स्वयं को कुण्ठित और अपमानित अनुभव कर रहे है। हमारे राष्ट्रीय नेताओं की नकारात्मक प्रतिक्रिया ने हमको अंग्रेज नेवी अधिकारियों से अधिक धक्का पहुँचाया है।’
हमारे इस भारतीय राष्ट्रीय नेताओं के विश्वासघात के कारण नौसैनिको का मुक्ति संग्राम हालाँकि कुचल दिया गया, लेकिन इसने ब्रिटिस साम्राज्य की जड़े हिला दी और अंग्रेजों के दिलों को भय से भर दिया। अंग्रेजों को ज्ञात हो गया कि केवल गोरे सैनिको के भरोसे भारत पर राज नहीं किया किया जा सकता , भारतीय सैनिक कभी भी क्रान्ति का शंखनाद कर 1857 का स्वतंत्रता समर दोहरा सकते है और इस बार सशस्त्र क्रान्ति हुई तो उनमें से एक भी जिन्दा नहीं बचेगा , अतः अब भारत को छोडकर वापिस जाने में ही उनकी भलाई है ।©आलोक
तत्कालीन ब्रिटिस हाई कमिश्नर जॉन फ्रोमैन का मत था कि 1946 में रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह (मुक्ति संग्राम ) के पश्चात भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई थी । 1947 में ब्रिटिस प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने भारत की स्वतंत्रता विधेयक पर चर्चा के दौरान टोरी दल के आलोचकों को उत्तर देते हुए हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा था कि- ‘हमने भारत को इसलिए छोडा , क्योंकि हम भारत में ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे थे । ‘(दि महात्मा एण्ड नेता जी , पृष्ठ -125 , लेखक – प्रोफेसर समर गुहा) नेताजी सुभाष से प्रेरणा प्राप्त इंडियन नेवी के वे क्रान्तिकारी सैनिक ही थे जिन्होंने भारत में अंग्रजों के विनाश के लिए ज्वालामुखी का निर्माण किया था। इसका स्पष्ट प्रमाण ब्रिटिस प्रधानमंत्री ‘लार्ड’ एटली और कोलकात्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ‘पी. बी. चक्रवर्ती’ जो उस समय पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल भी थे के वार्तालाप से मिलता है। जब चक्रवर्ती ने एटली से सीधे – सीधे पूछा कि ‘ गांधी का अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन तो 1947 से बहुत पहले ही मुरझा चुका था तथा उस समय भारतीय स्थिति में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे अंग्रेजों को भारत छोडना आवश्यक हो जाए , तब आपने ऐसा क्यों किया?’ तब एटली ने उत्तर देते हुए कई कारणों का उल्लेख किया, जिनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारण ‘इंडियन नेवी का विद्रोह (मुक्ति संग्राम) व नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कार्यकलाप थे जिसने भारत की जल सेना, थल सेना और वायु सेना के अंग्रेजों के प्रति लगाव को लगभग समाप्त करके उनकों अंग्रेजों के ही विरूद्ध लडने के लिए प्रेरित कर दिया था।’ अन्त में जब चक्रवर्ती ने एटली से अंग्रेजों के भारत छोडने के निर्णय पर गांधी जी के कार्यकलाप से पडने वाले प्रभाव के बारे मेँ पूछा तो इस प्रश्न को सुनकर एटली हंसने लगा और हंसते हुए कहा कि ‘ गांधी जी का प्रभाव तो न्यूनतम ही रहा।’
एटली और चक्रवर्ती का वार्तालाप निम्नलिखित तीन पुस्तकों में मिलता है-
1. हिस्ट्री ऑफ इंडियन इन्डिपेन्डेन्ट्स वाल्यूम – 3 , लेखक- डॉ. आर. सी. मजूमदार।
2. हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस , लेखिका – गिरिजा के. मुखर्जी ।
3. दि महात्मा एण्ड नेता जी , लेखक- प्रोफेसर समर गुहा।
भाइयों लेकिन इन सबके बावजूद आजद हिंद फ़ौज के इन आजादी के दीवानों को आजादी के बाद क्या मिला। उनके उपर आंतकवादी का ठप्पा लगा कर सम्मान पूर्वक जीने का हक को भी छिनने का प्रयास किया गया। क्या आप सोच सकते है इस बारे में। हाँ ये बिलकुल सत्य है।
जी हाँ मित्रों, आज की पीढ़ी ये सुनकर हिल जायेगी की कांग्रेस की नजर मे इस देश के लिए अपना बलिदान देने वाले मतवाले आज़ाद हिंद फ़ौज के फौजी गद्दार है ।ये संसद के रिकार्ड मे दर्ज है। जब डॉ श्यामा प्रशाद मुखर्जी ने नेहरु से आजाद हिंद फ़ौज के पूर्व सैनिको को भारतीय सेना के मानदंड पर पेंशन और भारतीय सेना अपने सैनिको को रिटायर के बाद जो सुविधा देती है वो सब देने का प्रस्ताव रखा था, तो नेहरु ने कहा की “मै आजाद हिंद फ़ौज को मान्यता नही देता , ये एक आतंकवादी कृत्य था . मै किसी निजी सेना बनाने के खिलाफ हूँ भले ही उसका इस्तेमाल देश के लिए हो, इसलिए मै ऐसे किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार नही करूँगा।” मित्रों, ये संसद के रिकार्ड मे है। हाय नेहरु आपको जरा भी लज्जा नहीं आई इन आजादी के परवानो को आतंकी ठहराने में, आखिर आप किस मुँह से लालकिला पर गए थे इन आंतकवादियों के पैरवी करने।
सारा इतिहास इन देशद्रोहियों के कारनामों से भरा पड़ा है अगर जरूरत है तो इनको खोज कर के जनता के सामने प्रस्तुत करने की। इन लोगो ने 60 सालो से सत्ता में रहकर मिडिया को मनमुताबिक चलाया। लेकिन अब सोसल मिडिया का जमाना आ गया है और सच्चाई ज्यादा देर तक छुप कर नहीं रह सकती।
written by Alok pandey