मेरे मन में हिंदू राष्ट्र बनाने का एक स्पष्ट प्रारूप बना है। सबसे पहले तो हमे यह तय करना होगा हम किस प्रकार का हिंदू राष्ट्र चाहते है।
निश्चित रूप से एक ऐसा राज्य जिसमें सनातन धर्म को सरकारी धर्म की मान्यता प्राप्त हो। वह राज्य हिंदू धर्म के विकास, एवं संवर्धन में सहयोग करें। आज की स्थिती यह है कि राजा धर्म के मामले में हस्तक्षेप ही नहीं करना चाहता। सारा कार्यभार पोंगा-पंडितो पर छोड़ दिया है, जिससे समाज उन्नति के बजाय अवनति की और बढ़ रहा है। धर्म में राजा का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है जो पिछले 800 साल से नहीं है, और यही हमारी धर्म का अवनति का मुख्य कारण है लेकिन ऐसा भी नहीं कि राजा ही धर्म का सर्वे सर्वा हो। हमारी समाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था ऐसी है कि राजनैतिक गुलामी के बावजूद इसमें धर्म का संचार निरंतर होता रहा और समय-समय पर धर्म की अलख जगाने वाले महापुरुष जन्म लेते रहे। और यही कारण है कि इतने लंबे समय तक थपेड़े खाने के बावजूद हमारी संस्कृति जिन्दा रही। लेकिन इसको उन्नति के पथ पर अग्रसर करने के लिए धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग राज्य व्यवस्था को लागु करना ही चाहिए।
राजा का कर्तव्य होता है कि वह धर्म की रक्षा और अधर्म के विनास के लिए अग्रसर हो, इसके अनुसार वह योग्य एवं धार्मिक व्यक्तियों को अपने राज्य में उचित सम्मान दे तथा अधर्मियों को उचित दंड भी दे। लेकिन यह व्यवस्था समाज के सर्वे सर्वा तथाकथित ब्राम्हणों के हाथों में आने पर जन्मना जाति व्यवस्था का कुत्सित रूप धारण करती गई और इस प्रकार के श्लोक भी रचे जाने लगे कि अगर कोई ब्राम्हण चोर, बदमास, लुटेरा, व्यभिचारी भी हो तो उसे पूजना चाहिए लेकिन अगर कोई शुद्र ज्ञानवान, चरित्रवान भी हो तो उसका तिरस्कार करना चाहिए।
पूजिय विप्र शील गुण हीना,
शूद्र ना गण गुण ज्ञान प्रविना।
(राम चरित मानस)
यहाँ मैं तुलसीदास की आलोचना नहीं करना चाहूँगा और उनके द्वारा किए गए महान कार्य के प्रति कृतज्ञ भी हूँ लेकिन फिर भी यह चौपाई उस समय की समाजिक मानसिकता को ही दर्शाता है. क्या यह विवेक के कसौटी पर खरी उतरती है। चूँकि शासन विधर्मियों के हाथ में था और वे सभी हिंदुओ को समान रूप से प्रताड़ित करते थे, अतः धर्म के मामले में तो उनका हस्तक्षेप समाज के लिए पूरी तरह अस्वीकार्य ही था, उस स्थिति में समाज ने तथाकथित ब्राम्हणों पर ही विश्वास किया, और उनलोगों ने भी जी भर कर इसका फायदा उठाया। ऐसा नहीं है कि उस समय अच्छे ब्राम्हण नहीं थे लेकिन समाज में अच्छे लोगो की संख्या प्रायः कम ही रहती है और उस समय अपना उचित राज्य व्यवस्था नहीं होने के कारण अच्छे लोगो को बहुमत के बल पर दबाना भी कोई मुश्किल कार्य नहीं होगा, वास्तव में यही पर जरूरत पड़ती है एक धर्म आधारित राज्य व्यवस्था के स्थापना की, क्योंकि एक राजा ही अपने दंड शक्ति के बल पर अधर्म को रोक सकता है और उस समय अपना कोई धार्मिक राजा होता तो हमारे समाज में प्रचलित कुरूतियो को तथा धार्मिको के दबाने के प्रयत्न को जरुर रोकता, विद्वान ब्राह्मण को धर्म की उन्नति करने के प्रयास में सहायता करता एवं अधर्मियों को उचित सबक सिखाता। लेकिन जो कहीं बचे भी थे वे सब स्वार्थी या सत्ता लोलुप ही थे।
एक बार राजा भोज के शासन काल में एक ब्राम्हण ने शिव पुराण एवं मार्कण्डेय पुराण की रचना कर डाली ये बात राजा को नगवार गुजरी कि उन्होंने शिव का नाम क्यों इस्तेमाल किया। और इसपर उन्होंने उसको हस्त छेदन का दंड दे दिया। तो राजा इस प्रकार होना चाहिए कि ब्राह्मण भी अधर्म करते हुए डरे, ब्राम्हण भी इस प्रकार होना चाहिए की राजा भी अधर्म करते हुए डरे, दोनों के बिच संतुलन से ही समाज और धर्म की उन्नति हो सकती है। लेकिन सभी शक्तियाँ किन्ही एक के पास होने से ही अधर्म की वृद्धि होती है, और हमारी गुलामी के कालखंड में यही हुआ। राजनैतिक शक्ति तो विधर्मियों के पास थी अतः बिना उचित दंड शक्ति के अभाव में अधर्म की अवनति ही होती गई। लेकिन यहाँ ब्राम्हणों का मतलब जन्मना ब्राम्हण लगाना उचित नहीं होगा। हमे एक ऐसी समाजिक व्यवस्था की पुनर्स्थापना करना होगा जिसमें हरेक को अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार हो और विद्वान व्यक्ति को ही ब्राम्हण की उपाधि प्रदान की जाए। अतः आज के समय में एक धर्म आधारित राज्य की स्थापना करना एक दम आवश्यक हो गया है।
तो सबसे पहले हम जिस हिंदू राष्ट्र के बारे में बात कर रहे है वो इस मौजूदा लोकतंत्र से फलित होने से रहा। हमारा मौजूदा लोकतंत्र तुष्टिकरण को बढ़ावा देने वाला है। और अगर मान भी लीजिए हम लोकसभा में दो तिहाई बहुमत प्राप्त करने में सफल रहे फिर भी हम इच्छित हिंदू राष्ट्र प्राप्त करने में असफल ही रहेंगे। और बहुत होगा तो हम भारत को हिंदुराष्ट्र नाम ही दे सकते है लेकिन वो भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द हो जाएगा क्योंकि यह हमारे संविधान के मूल भावना से मेल नहीं खाती, या अगर कर भी दिए तो इसकी बहुत कम संभावना है कि हमारा शासन हमेशा चलते ही रहेगा क्योंकि कभी भी जनता अगर किसी कुशासन या किसी दुस्प्रचार में फस कर नाम मात्र भी नाराज होगी तो हमारा तख्ता वोट के माध्यम से पलट देगी। फिर दूसरा दल हमारे सारे किए धरे पर पानी फेर सकता है और फिर हम इंतजार करते रह जाएँगे दो तिहाई बहुमत पाने का और दुबारा संविधान संसोधन का। इन सब स्थिति में किसी का भी भला न होगा। बस भला होगा तो उनका जो सत्ता के माध्यम से लाभ कमाना चाहते है और वे जनता को ठग-ठग कर सपने दिखाकर सता में आते-जाते रहेंगे। लेकिन हमलोग स्वप्न ही देखते रह जाएँगे।
अतः इसके लिए हमे एक समग्र क्रांति की आवश्यकता है जिसमें सशस्त्र एवं सामाजिक क्रांति दोनों शामिल हो। हमें लोगों को इस क्रांति के लिए तैयार करना होगा। इसके अलावा भी हम लोगों को चौतरफा प्रयास करना होगा। जैसे सशस्त्र क्रांति के साथ-साथ अपने लोगों को शाशन पद्धति (संसद) में भी घुसपैठ कराना ताकि अपनी आवाज उठती रहे, और कुछ बचाव की भी संभावना बने। साथ-साथ अपने विचारधारा के लोगो को हरेक क्षेत्रो में भेजना मसलन पुलिस-प्रशासन, सेना तथा शिक्षा क्षेत्र में ताकि वे अपने एजेंडे को गुप्त रूप से लागु करते रहे और क्रांतिकारियों की मदद कर सके। इनमे भी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपनी इस क्रांति की विचारधारा को संपूर्ण सेना और पुलिस और जनता में तेज गति से फैलाते रहना है ताकि समय आने पर हमे उनलोगों द्वारा पूरी मदद मिल सके, और जब ये सब हमारे आंशिक नियंत्रण में भी आने लगेंगे तो हमारी राह आसान बनती जाएगी, क्योंकि ये सारा सिस्टम इन नेताओ के बदौलत नहीं बल्कि इन्हीं नौकरशाह इत्यादि लोगो द्वारा ही संचालित होती है।
लेकिन यह सब तो तभी होगा न जब अपना एक मजबूत वैचारिक आधार हो। बिना किसी वैचारिक आधार के यह हिंदू राष्ट्र कपोल कल्पना ही साबित होगा। आखिर कैसा होगा हमारा हिंदू राष्ट्र। उसका कैसा प्रारूप होगा। उसका कैसा संविधान होगा। उसमे मौजूदा अल्पसंख्यकों एवं दलितों की क्या स्थिति होगी। हमारी आर्थिक व्यवस्था कैसी होगी। हमारा न्यायतंत्र कैसा होगा। बिना इन सब प्रश्नों के उचित समाधान खोजे बिना किसी भी प्रकार के राष्ट्र की स्थापना करना मुर्खता ही होगी। अतः क्रांति के शुरुआत करने साथ ही इन सब का उचित उत्तर खोजने का कार्य भी शुरू करना होगा। वरना ऐसा होगा कि हमारा राज्य क्रांति तो सफल हो जाएगा लेकिन प्रसाशनिक कौशल के अभाव में हमे उन्ही अधिकारीयों की मदद लेनी पड़ेगी जिनके खिलाफ हम लड़ते आए है तथा जिन्होंने सदा भिन्न-भिन्न उपायों से हमारे आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया हो। ये वास्तव में हमारे लिए एक शर्मनाक स्थिति होगी। और ये बताने की बताने की जरूरत नहीं है कि अंग्रेजो के जाने के बाद हमारा देश उसी का दुष्परिणाम भोग रहा है। आजादी के बाद भी हमे वहीं सिस्टम अपनाना पड़ा जो अंग्रेजो ने हम पर शासन करने के लिए बनाई थी। हमे उन्हीं अधिकारीयों की सेवाए लेनी पड़ी थी जिन्होंने कभी क्रांतिकारियों एवं आजादी के समर्थको के प्रति सहानुभूति न रखी थी। हमे वही न्यायतंत्र अपनाना पड़ा जो अंग्रेजो ने हम गुलाम भारतीयों का न्याय करने के लिए बनाया था, और वह अभी भी वैसे ही रूप में चल रहा है, न नौकरशाही का रूप बदला है न न्यायतन्त्र का। और इसीलिए हमारे ही देश में हिंदी उपेक्षित है, हिंदू उपेक्षित है और सच कहे तो पूरा गरीब हिंदुस्तान उपेक्षित है। अतः क्रांति कार्य और अपना प्रशासनिक ढांचा विकसित करना दोनों साथ-साथ चलना चाहिए जिससे कि हम दुसरो से उधार न लेकर अपना बना बना-बनाया ढांचा विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर सके।
लेकिन इन सबमे भी सबसे पहले समस्त हिन्दुओं का समर्थन पाना सुनिश्चित करना होगा और इसके लिए, हिंदुओ में एकता लाने के लिए हिंदुओ के मौजूदा विवाद हल करने ही होंगे, खास कर जाति-पाति का विवाद। जब हम हिंदू राष्ट्र की स्थापना करने जा रहे है तो हमे समस्त हिंदुओ को ध्यान रखना पड़ेगा, और इसके लिए इस समाज में मौजूद गैर बराबरी को पटना होगा, ऊँच नीच के भाव को खत्म करना होगा।और जब तक यह मौजूदा जाति व्यवस्था बना रहता है यह संभव नहीं। जाति सनातन नहीं है, सनातन तो एकमात्र केवल परमात्मा ही है।जाति हमी लोगों ने इसी धरती पर आकर बनाई है अतः हमे मौजूदा परिस्थितियों में सच्चाई स्वीकार कर जाति व्यवस्था जो जन्मना है उसे खत्म करना चाहिए और इसे कर्मणा लागु करना चाहिए, लेकिन इसके लिए सभी वर्गो का समर्थन भी प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए चाहे वो ब्राम्हण हो या शुद्र। सभी मिलकर ही नया सिस्टम बना सकते है। लेकिन फिर भी यदि कोई यह सोचता है कि मौजूदा असमानता को बनाए रखते हुए ही हम राज्य क्रांति करें तो, या तो वह मुर्ख है या स्वार्थी।
हमे निश्चित ही एक ऐसा सिस्टम बनाना होगा जिसमें सभी हिंदू एक समान हो तथा जो कोई भी हमारे धर्म में प्रवेश करने को इच्छुक हो उनको भी अपना कर समाज में उसको पुर्णतः बराबरी का दर्जा मिले। सभी हिंदू एक समान हो मतलब समाज में सभी एक दुसरे से समान व्यवहार कर सके मसलन शादी, भोजन, इत्यादि। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात शादी की ही है, हिंदू समाज के सभी लोग बिना जाती देखे शादी करे या यो कहे तो जाति व्यवस्था पूरी तरह कर्म के आधार पर होने से ये अपने आप होने लगेगी, नहीं तो मौजूदा व्यवस्था तो और नई-नई जातियों को बढ़ावा देने वाला है। मान लीजिए कोई मुसलमान सनातन धर्म से प्रभावित हो सनातन धर्म को अंगीकार कर लेता है तो इस मौजूदा जाति व्यवस्था में उससे कौन अपनी बेटी का ब्याह करेगा। जब एक हिंदू ही किसी अन्य हिंदू से शादी-ब्याह के रिश्तो में सकुचाता हो तो वह अपनी संतान का विवाह किसी धर्मपरिवर्तित व्यक्ति से कैसे कर सकता है। समाज में इतनी संकीर्णता व्याप्त होंने से अंततः वह पुनः सनातन धर्म छोड़ सकता है अन्यथा वह अपने ही जैसे लोग की खोज करेगा जो उसी तरह मुसलमान से हिंदू बने है जो बहुत दुष्कर कार्य है नहीं तो सबके लिए प्रेम विवाह भी करना आसान नही है। अतः इस समाज के मानसिकता को चेंज किए बिना हिंदू धर्म में एकता नहीं आ सकती और न ही हम हिंदुओ का पुनरोद्धार हो सकता है। कितनी शर्म की बात है न कि हम किसी हिंदू लड़की से ही शादी नहीं कर सकते, केवल अलग जाति होने के कारण, इसमें एक सवाल यह उठता है कि क्या यह प्रथा सनातन है, मतलब आदिकाल से चली आ रही है। तो इसका उत्तर बिलकुल भी न में होगा। क्योंकि जब शक और हुण जो एक बर्बर जातिया थी को सनातन धर्म में किस प्रकार मिलाया गया। हमारे लोगों ने अपनी पुत्रियों को उनसे ब्याहा और वह समाज से इस प्रकार घुल मिल गए कि आज कोई नहीं बचा है जो यह कह सके कि हमारे पूर्वज शक या हुण थे। लेकिन यह घोर रुढ़ीबद्धता आई कहा से। यह निश्चित ही हमारी लंबी गुलामी की देन है।
कश्मीर के बारे में एक कथा इस प्रकार है कि 14वी सदी में वहाँ के सेनापति ने सनातन धर्म अपनाना चाहा था तो वहाँ के तथाकथित ब्राम्हण विरोध करने लगे। तो उसने फैसला किया किया कि सुबह के समय जिस धर्म के व्यक्ति को पहले देखूंगा या सुनुंगा उसी धर्म को अपना लूँगा। उसने सुबह-सुबह आजान की आवाज सुनी और मौलवी से भेट कर इस्लाम कबूल कर लिया।और बाद में वही शासक बन बैठा फिर शुरू हुआ तलवार के बल पर धर्म परिवर्तन का खेल। कल तक जो सनातन धर्म अपनाने के लिए तैयार था वही आज उन सनातनियों के लिए दुश्मन बन गया था और तब से धर्म परिवर्तन होते होते आज पूरा कश्मीर घाटी हिंदुओ से खाली होने के कगार पर है।
उसी समय के आसपास की एक और घटना का वर्णन करता हूँ। हरिहर और बुक्का नाम के दो भाई थे। दोनों को बल पूर्वक मुसलमान बनाया गया था, लेकिन शंकराचार्य विद्यारण्य जी ने प्रयास करके उस समय के समाजिक धारा से विपरीत चलते हुए उनका शुद्धिकरण करके फिर से हिंदू बना दिया और बाद में उन्हीं के नेतृत्व में महान विजयनगर सम्राज्य की स्थापना हुई जो लगभग 200 सालो तक चली।
इसीलिए हिंदुओ के एकता एवं भलाई के लिए इन कुरीतियों को भी खत्म करने का प्रयास करना होगा। अगर बिना ये सब कुरीतियों के खत्म किए हिंदू राष्ट्र बना भी लिए तो यह अस्थाई होगा। हमे कुरूतियों को इसलिए नहीं खत्म करना होगा कि इससे हिंदू राष्ट्र बनने में बाधा उत्पन्न हो रहा है या यह हिंदूओ की एकता के लिए सही नहीं है। बल्कि यह तो हर स्थिति में समाज के लिए एक अभिशाप की तरह है, एक ऐसा राज्य जहाँ समाज के अधिकांश भाग अपने को शोषित या अपमानित महसूस करें यह किसी के लिए व्यवहारिक तौर पर ठीक नहीं है। नेपाल तो पुर्णतः हिंदू राष्ट्र था, लेकिन वहाँ की जनता ने क्यों नकार दिया वह केवल राजशाही हटाती और मौजूदा लोकतंत्र में भी हिंदू राष्ट्र को बनाए रखती।
लेकिन वही की जनता ने इसे क्यों ख़ारिज कर दिया। क्योंकि वहाँ हिंदुत्व के नाम पर जनता का शोषण किया जा रहा था। पहले जब राणाशाही थी तो वहाँ छुआ-छुत को क़ानूनी मान्यता प्राप्त थी तथा जो इसे नहीं पालन करता था उसे दंड भी मिलता था, बाद में राजशाही आया तो यह कानून हटा लेकिन दलितों की स्थिति तब भी नहीं सुधरी आज से दस वर्ष पहले अगर कोई दलित किसी दुकान पर कुछ खाता-पिता था तो उसे खुद ही प्लेट साफ करना होता था।कितनी शर्मनाक स्थिति थी उस हिंदू राष्ट्र में जहाँ एक हिंदू, दुसरे हिंदू का शोषण करना अपना जन्मना अधिकार समझता था। क्या हम ऐसा ही हिंदू राष्ट्र का सपना देख रहे है?
अतः एक आदर्श हिंदू राज्य की स्थापना हेतु हमे समग्र क्रांति की आवश्यकता पड़ेगी।
इसके आलावा भी हमारा हिंदू राष्ट्र बने या न बने लेकिन इस मौजूदा सामाजिक स्थिति को तो चेंज करना ही होगा। अतः सभी भाई जो हिंदू जागृति में लगे है उनको मेरा सलाह है कि वे अपने आस-पास मौजूद समाजिक विषमता को खत्म करने का प्रयास जरुर करें। इसी में हमारा स्थाई और भव्य हिंदू साम्राज्य का बिज छुपा हुआ है।
।।जय हिंद।।
।।भारत माता की जय।।
निश्चित रूप से एक ऐसा राज्य जिसमें सनातन धर्म को सरकारी धर्म की मान्यता प्राप्त हो। वह राज्य हिंदू धर्म के विकास, एवं संवर्धन में सहयोग करें। आज की स्थिती यह है कि राजा धर्म के मामले में हस्तक्षेप ही नहीं करना चाहता। सारा कार्यभार पोंगा-पंडितो पर छोड़ दिया है, जिससे समाज उन्नति के बजाय अवनति की और बढ़ रहा है। धर्म में राजा का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है जो पिछले 800 साल से नहीं है, और यही हमारी धर्म का अवनति का मुख्य कारण है लेकिन ऐसा भी नहीं कि राजा ही धर्म का सर्वे सर्वा हो। हमारी समाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था ऐसी है कि राजनैतिक गुलामी के बावजूद इसमें धर्म का संचार निरंतर होता रहा और समय-समय पर धर्म की अलख जगाने वाले महापुरुष जन्म लेते रहे। और यही कारण है कि इतने लंबे समय तक थपेड़े खाने के बावजूद हमारी संस्कृति जिन्दा रही। लेकिन इसको उन्नति के पथ पर अग्रसर करने के लिए धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग राज्य व्यवस्था को लागु करना ही चाहिए।
राजा का कर्तव्य होता है कि वह धर्म की रक्षा और अधर्म के विनास के लिए अग्रसर हो, इसके अनुसार वह योग्य एवं धार्मिक व्यक्तियों को अपने राज्य में उचित सम्मान दे तथा अधर्मियों को उचित दंड भी दे। लेकिन यह व्यवस्था समाज के सर्वे सर्वा तथाकथित ब्राम्हणों के हाथों में आने पर जन्मना जाति व्यवस्था का कुत्सित रूप धारण करती गई और इस प्रकार के श्लोक भी रचे जाने लगे कि अगर कोई ब्राम्हण चोर, बदमास, लुटेरा, व्यभिचारी भी हो तो उसे पूजना चाहिए लेकिन अगर कोई शुद्र ज्ञानवान, चरित्रवान भी हो तो उसका तिरस्कार करना चाहिए।
पूजिय विप्र शील गुण हीना,
शूद्र ना गण गुण ज्ञान प्रविना।
(राम चरित मानस)
यहाँ मैं तुलसीदास की आलोचना नहीं करना चाहूँगा और उनके द्वारा किए गए महान कार्य के प्रति कृतज्ञ भी हूँ लेकिन फिर भी यह चौपाई उस समय की समाजिक मानसिकता को ही दर्शाता है. क्या यह विवेक के कसौटी पर खरी उतरती है। चूँकि शासन विधर्मियों के हाथ में था और वे सभी हिंदुओ को समान रूप से प्रताड़ित करते थे, अतः धर्म के मामले में तो उनका हस्तक्षेप समाज के लिए पूरी तरह अस्वीकार्य ही था, उस स्थिति में समाज ने तथाकथित ब्राम्हणों पर ही विश्वास किया, और उनलोगों ने भी जी भर कर इसका फायदा उठाया। ऐसा नहीं है कि उस समय अच्छे ब्राम्हण नहीं थे लेकिन समाज में अच्छे लोगो की संख्या प्रायः कम ही रहती है और उस समय अपना उचित राज्य व्यवस्था नहीं होने के कारण अच्छे लोगो को बहुमत के बल पर दबाना भी कोई मुश्किल कार्य नहीं होगा, वास्तव में यही पर जरूरत पड़ती है एक धर्म आधारित राज्य व्यवस्था के स्थापना की, क्योंकि एक राजा ही अपने दंड शक्ति के बल पर अधर्म को रोक सकता है और उस समय अपना कोई धार्मिक राजा होता तो हमारे समाज में प्रचलित कुरूतियो को तथा धार्मिको के दबाने के प्रयत्न को जरुर रोकता, विद्वान ब्राह्मण को धर्म की उन्नति करने के प्रयास में सहायता करता एवं अधर्मियों को उचित सबक सिखाता। लेकिन जो कहीं बचे भी थे वे सब स्वार्थी या सत्ता लोलुप ही थे।
एक बार राजा भोज के शासन काल में एक ब्राम्हण ने शिव पुराण एवं मार्कण्डेय पुराण की रचना कर डाली ये बात राजा को नगवार गुजरी कि उन्होंने शिव का नाम क्यों इस्तेमाल किया। और इसपर उन्होंने उसको हस्त छेदन का दंड दे दिया। तो राजा इस प्रकार होना चाहिए कि ब्राह्मण भी अधर्म करते हुए डरे, ब्राम्हण भी इस प्रकार होना चाहिए की राजा भी अधर्म करते हुए डरे, दोनों के बिच संतुलन से ही समाज और धर्म की उन्नति हो सकती है। लेकिन सभी शक्तियाँ किन्ही एक के पास होने से ही अधर्म की वृद्धि होती है, और हमारी गुलामी के कालखंड में यही हुआ। राजनैतिक शक्ति तो विधर्मियों के पास थी अतः बिना उचित दंड शक्ति के अभाव में अधर्म की अवनति ही होती गई। लेकिन यहाँ ब्राम्हणों का मतलब जन्मना ब्राम्हण लगाना उचित नहीं होगा। हमे एक ऐसी समाजिक व्यवस्था की पुनर्स्थापना करना होगा जिसमें हरेक को अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार हो और विद्वान व्यक्ति को ही ब्राम्हण की उपाधि प्रदान की जाए। अतः आज के समय में एक धर्म आधारित राज्य की स्थापना करना एक दम आवश्यक हो गया है।
तो सबसे पहले हम जिस हिंदू राष्ट्र के बारे में बात कर रहे है वो इस मौजूदा लोकतंत्र से फलित होने से रहा। हमारा मौजूदा लोकतंत्र तुष्टिकरण को बढ़ावा देने वाला है। और अगर मान भी लीजिए हम लोकसभा में दो तिहाई बहुमत प्राप्त करने में सफल रहे फिर भी हम इच्छित हिंदू राष्ट्र प्राप्त करने में असफल ही रहेंगे। और बहुत होगा तो हम भारत को हिंदुराष्ट्र नाम ही दे सकते है लेकिन वो भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द हो जाएगा क्योंकि यह हमारे संविधान के मूल भावना से मेल नहीं खाती, या अगर कर भी दिए तो इसकी बहुत कम संभावना है कि हमारा शासन हमेशा चलते ही रहेगा क्योंकि कभी भी जनता अगर किसी कुशासन या किसी दुस्प्रचार में फस कर नाम मात्र भी नाराज होगी तो हमारा तख्ता वोट के माध्यम से पलट देगी। फिर दूसरा दल हमारे सारे किए धरे पर पानी फेर सकता है और फिर हम इंतजार करते रह जाएँगे दो तिहाई बहुमत पाने का और दुबारा संविधान संसोधन का। इन सब स्थिति में किसी का भी भला न होगा। बस भला होगा तो उनका जो सत्ता के माध्यम से लाभ कमाना चाहते है और वे जनता को ठग-ठग कर सपने दिखाकर सता में आते-जाते रहेंगे। लेकिन हमलोग स्वप्न ही देखते रह जाएँगे।
अतः इसके लिए हमे एक समग्र क्रांति की आवश्यकता है जिसमें सशस्त्र एवं सामाजिक क्रांति दोनों शामिल हो। हमें लोगों को इस क्रांति के लिए तैयार करना होगा। इसके अलावा भी हम लोगों को चौतरफा प्रयास करना होगा। जैसे सशस्त्र क्रांति के साथ-साथ अपने लोगों को शाशन पद्धति (संसद) में भी घुसपैठ कराना ताकि अपनी आवाज उठती रहे, और कुछ बचाव की भी संभावना बने। साथ-साथ अपने विचारधारा के लोगो को हरेक क्षेत्रो में भेजना मसलन पुलिस-प्रशासन, सेना तथा शिक्षा क्षेत्र में ताकि वे अपने एजेंडे को गुप्त रूप से लागु करते रहे और क्रांतिकारियों की मदद कर सके। इनमे भी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपनी इस क्रांति की विचारधारा को संपूर्ण सेना और पुलिस और जनता में तेज गति से फैलाते रहना है ताकि समय आने पर हमे उनलोगों द्वारा पूरी मदद मिल सके, और जब ये सब हमारे आंशिक नियंत्रण में भी आने लगेंगे तो हमारी राह आसान बनती जाएगी, क्योंकि ये सारा सिस्टम इन नेताओ के बदौलत नहीं बल्कि इन्हीं नौकरशाह इत्यादि लोगो द्वारा ही संचालित होती है।
लेकिन यह सब तो तभी होगा न जब अपना एक मजबूत वैचारिक आधार हो। बिना किसी वैचारिक आधार के यह हिंदू राष्ट्र कपोल कल्पना ही साबित होगा। आखिर कैसा होगा हमारा हिंदू राष्ट्र। उसका कैसा प्रारूप होगा। उसका कैसा संविधान होगा। उसमे मौजूदा अल्पसंख्यकों एवं दलितों की क्या स्थिति होगी। हमारी आर्थिक व्यवस्था कैसी होगी। हमारा न्यायतंत्र कैसा होगा। बिना इन सब प्रश्नों के उचित समाधान खोजे बिना किसी भी प्रकार के राष्ट्र की स्थापना करना मुर्खता ही होगी। अतः क्रांति के शुरुआत करने साथ ही इन सब का उचित उत्तर खोजने का कार्य भी शुरू करना होगा। वरना ऐसा होगा कि हमारा राज्य क्रांति तो सफल हो जाएगा लेकिन प्रसाशनिक कौशल के अभाव में हमे उन्ही अधिकारीयों की मदद लेनी पड़ेगी जिनके खिलाफ हम लड़ते आए है तथा जिन्होंने सदा भिन्न-भिन्न उपायों से हमारे आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया हो। ये वास्तव में हमारे लिए एक शर्मनाक स्थिति होगी। और ये बताने की बताने की जरूरत नहीं है कि अंग्रेजो के जाने के बाद हमारा देश उसी का दुष्परिणाम भोग रहा है। आजादी के बाद भी हमे वहीं सिस्टम अपनाना पड़ा जो अंग्रेजो ने हम पर शासन करने के लिए बनाई थी। हमे उन्हीं अधिकारीयों की सेवाए लेनी पड़ी थी जिन्होंने कभी क्रांतिकारियों एवं आजादी के समर्थको के प्रति सहानुभूति न रखी थी। हमे वही न्यायतंत्र अपनाना पड़ा जो अंग्रेजो ने हम गुलाम भारतीयों का न्याय करने के लिए बनाया था, और वह अभी भी वैसे ही रूप में चल रहा है, न नौकरशाही का रूप बदला है न न्यायतन्त्र का। और इसीलिए हमारे ही देश में हिंदी उपेक्षित है, हिंदू उपेक्षित है और सच कहे तो पूरा गरीब हिंदुस्तान उपेक्षित है। अतः क्रांति कार्य और अपना प्रशासनिक ढांचा विकसित करना दोनों साथ-साथ चलना चाहिए जिससे कि हम दुसरो से उधार न लेकर अपना बना बना-बनाया ढांचा विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर सके।
लेकिन इन सबमे भी सबसे पहले समस्त हिन्दुओं का समर्थन पाना सुनिश्चित करना होगा और इसके लिए, हिंदुओ में एकता लाने के लिए हिंदुओ के मौजूदा विवाद हल करने ही होंगे, खास कर जाति-पाति का विवाद। जब हम हिंदू राष्ट्र की स्थापना करने जा रहे है तो हमे समस्त हिंदुओ को ध्यान रखना पड़ेगा, और इसके लिए इस समाज में मौजूद गैर बराबरी को पटना होगा, ऊँच नीच के भाव को खत्म करना होगा।और जब तक यह मौजूदा जाति व्यवस्था बना रहता है यह संभव नहीं। जाति सनातन नहीं है, सनातन तो एकमात्र केवल परमात्मा ही है।जाति हमी लोगों ने इसी धरती पर आकर बनाई है अतः हमे मौजूदा परिस्थितियों में सच्चाई स्वीकार कर जाति व्यवस्था जो जन्मना है उसे खत्म करना चाहिए और इसे कर्मणा लागु करना चाहिए, लेकिन इसके लिए सभी वर्गो का समर्थन भी प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए चाहे वो ब्राम्हण हो या शुद्र। सभी मिलकर ही नया सिस्टम बना सकते है। लेकिन फिर भी यदि कोई यह सोचता है कि मौजूदा असमानता को बनाए रखते हुए ही हम राज्य क्रांति करें तो, या तो वह मुर्ख है या स्वार्थी।
हमे निश्चित ही एक ऐसा सिस्टम बनाना होगा जिसमें सभी हिंदू एक समान हो तथा जो कोई भी हमारे धर्म में प्रवेश करने को इच्छुक हो उनको भी अपना कर समाज में उसको पुर्णतः बराबरी का दर्जा मिले। सभी हिंदू एक समान हो मतलब समाज में सभी एक दुसरे से समान व्यवहार कर सके मसलन शादी, भोजन, इत्यादि। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात शादी की ही है, हिंदू समाज के सभी लोग बिना जाती देखे शादी करे या यो कहे तो जाति व्यवस्था पूरी तरह कर्म के आधार पर होने से ये अपने आप होने लगेगी, नहीं तो मौजूदा व्यवस्था तो और नई-नई जातियों को बढ़ावा देने वाला है। मान लीजिए कोई मुसलमान सनातन धर्म से प्रभावित हो सनातन धर्म को अंगीकार कर लेता है तो इस मौजूदा जाति व्यवस्था में उससे कौन अपनी बेटी का ब्याह करेगा। जब एक हिंदू ही किसी अन्य हिंदू से शादी-ब्याह के रिश्तो में सकुचाता हो तो वह अपनी संतान का विवाह किसी धर्मपरिवर्तित व्यक्ति से कैसे कर सकता है। समाज में इतनी संकीर्णता व्याप्त होंने से अंततः वह पुनः सनातन धर्म छोड़ सकता है अन्यथा वह अपने ही जैसे लोग की खोज करेगा जो उसी तरह मुसलमान से हिंदू बने है जो बहुत दुष्कर कार्य है नहीं तो सबके लिए प्रेम विवाह भी करना आसान नही है। अतः इस समाज के मानसिकता को चेंज किए बिना हिंदू धर्म में एकता नहीं आ सकती और न ही हम हिंदुओ का पुनरोद्धार हो सकता है। कितनी शर्म की बात है न कि हम किसी हिंदू लड़की से ही शादी नहीं कर सकते, केवल अलग जाति होने के कारण, इसमें एक सवाल यह उठता है कि क्या यह प्रथा सनातन है, मतलब आदिकाल से चली आ रही है। तो इसका उत्तर बिलकुल भी न में होगा। क्योंकि जब शक और हुण जो एक बर्बर जातिया थी को सनातन धर्म में किस प्रकार मिलाया गया। हमारे लोगों ने अपनी पुत्रियों को उनसे ब्याहा और वह समाज से इस प्रकार घुल मिल गए कि आज कोई नहीं बचा है जो यह कह सके कि हमारे पूर्वज शक या हुण थे। लेकिन यह घोर रुढ़ीबद्धता आई कहा से। यह निश्चित ही हमारी लंबी गुलामी की देन है।
कश्मीर के बारे में एक कथा इस प्रकार है कि 14वी सदी में वहाँ के सेनापति ने सनातन धर्म अपनाना चाहा था तो वहाँ के तथाकथित ब्राम्हण विरोध करने लगे। तो उसने फैसला किया किया कि सुबह के समय जिस धर्म के व्यक्ति को पहले देखूंगा या सुनुंगा उसी धर्म को अपना लूँगा। उसने सुबह-सुबह आजान की आवाज सुनी और मौलवी से भेट कर इस्लाम कबूल कर लिया।और बाद में वही शासक बन बैठा फिर शुरू हुआ तलवार के बल पर धर्म परिवर्तन का खेल। कल तक जो सनातन धर्म अपनाने के लिए तैयार था वही आज उन सनातनियों के लिए दुश्मन बन गया था और तब से धर्म परिवर्तन होते होते आज पूरा कश्मीर घाटी हिंदुओ से खाली होने के कगार पर है।
उसी समय के आसपास की एक और घटना का वर्णन करता हूँ। हरिहर और बुक्का नाम के दो भाई थे। दोनों को बल पूर्वक मुसलमान बनाया गया था, लेकिन शंकराचार्य विद्यारण्य जी ने प्रयास करके उस समय के समाजिक धारा से विपरीत चलते हुए उनका शुद्धिकरण करके फिर से हिंदू बना दिया और बाद में उन्हीं के नेतृत्व में महान विजयनगर सम्राज्य की स्थापना हुई जो लगभग 200 सालो तक चली।
इसीलिए हिंदुओ के एकता एवं भलाई के लिए इन कुरीतियों को भी खत्म करने का प्रयास करना होगा। अगर बिना ये सब कुरीतियों के खत्म किए हिंदू राष्ट्र बना भी लिए तो यह अस्थाई होगा। हमे कुरूतियों को इसलिए नहीं खत्म करना होगा कि इससे हिंदू राष्ट्र बनने में बाधा उत्पन्न हो रहा है या यह हिंदूओ की एकता के लिए सही नहीं है। बल्कि यह तो हर स्थिति में समाज के लिए एक अभिशाप की तरह है, एक ऐसा राज्य जहाँ समाज के अधिकांश भाग अपने को शोषित या अपमानित महसूस करें यह किसी के लिए व्यवहारिक तौर पर ठीक नहीं है। नेपाल तो पुर्णतः हिंदू राष्ट्र था, लेकिन वहाँ की जनता ने क्यों नकार दिया वह केवल राजशाही हटाती और मौजूदा लोकतंत्र में भी हिंदू राष्ट्र को बनाए रखती।
लेकिन वही की जनता ने इसे क्यों ख़ारिज कर दिया। क्योंकि वहाँ हिंदुत्व के नाम पर जनता का शोषण किया जा रहा था। पहले जब राणाशाही थी तो वहाँ छुआ-छुत को क़ानूनी मान्यता प्राप्त थी तथा जो इसे नहीं पालन करता था उसे दंड भी मिलता था, बाद में राजशाही आया तो यह कानून हटा लेकिन दलितों की स्थिति तब भी नहीं सुधरी आज से दस वर्ष पहले अगर कोई दलित किसी दुकान पर कुछ खाता-पिता था तो उसे खुद ही प्लेट साफ करना होता था।कितनी शर्मनाक स्थिति थी उस हिंदू राष्ट्र में जहाँ एक हिंदू, दुसरे हिंदू का शोषण करना अपना जन्मना अधिकार समझता था। क्या हम ऐसा ही हिंदू राष्ट्र का सपना देख रहे है?
अतः एक आदर्श हिंदू राज्य की स्थापना हेतु हमे समग्र क्रांति की आवश्यकता पड़ेगी।
इसके आलावा भी हमारा हिंदू राष्ट्र बने या न बने लेकिन इस मौजूदा सामाजिक स्थिति को तो चेंज करना ही होगा। अतः सभी भाई जो हिंदू जागृति में लगे है उनको मेरा सलाह है कि वे अपने आस-पास मौजूद समाजिक विषमता को खत्म करने का प्रयास जरुर करें। इसी में हमारा स्थाई और भव्य हिंदू साम्राज्य का बिज छुपा हुआ है।
।।जय हिंद।।
।।भारत माता की जय।।