क्या गाँधी अंग्रेजो के एजेंट थे?
By आलोक देश पांडेय
एक दिन हमारे एक मित्र कह रहे थे कि “हिटलर ने अंग्रेजो से कहा था कि आप मात्र एक बुलेट का इस्तेमाल करके गाँधी का वध कर दो तो आपकी सारी समस्या ही खत्म हो जाएगी लेकिन उस समय तो अंग्रेजो ने यह काम नहीं किया लेकिन एक हिंदूवादी ने यह काम कर दिया.”
क्या आप यह सोच सकते है अंग्रेजो ने गाँधी को क्यों नहीं मारा जबकि उनके लिए तो यह बहुत आसान था जिस प्रकार लाला लाजपत राय को घेर कर डंडे से ही पिट-पिट कर मार डाला उसी प्रकार अंगेजो द्वारा गाँधी को खत्म करना कोई कठिन कार्य नहीं था लेकिन आखिर ऐसा क्या कारण था कि अंग्रेज गाँधी को दबाने के बजाए उनको सह देते रहे. जबकि सावरकर को बिना अपराध के मात्र बन्दुक रखने के गलत आरोप लगाकर 50 वर्षो की कालापानी कि सजा सुना दी और वे लगभग 27 वर्षो तक अंग्रेजो के विभिन्न तरह के कैद में रहे. वही गाँधी कितने वर्षो तक कैद में रहे? दरअसल गाँधी जी अंग्रेजो के एजेंट थे और ये उनकी ही बातो से पता चलता है. जिस प्रकार आज के राजनितिक दल भारत देश के प्रति पूर्ण निष्ठा बरतते है लेकिन सरकार के प्रति, उसके नीतियों के प्रति संघर्ष करते रहते है उसी तरह गाँधी जी भी अंग्रेजो के साम्राज्य के प्रति पूर्ण निष्ठावान थे लेकिन उनकी अत्याचारी नीतियों के खिलाफ संघर्ष करते रहते थे. वे नहीं चाहते थे कि अंग्रेज हमारा देश छोड़कर चले जाए बल्कि वे यह चाहते थे कि अंगेज अपनी दमनकारी नीतियों, में परिवर्तन करे और उसी के लिए वे सत्याग्रह इत्यादि करते थे.
लेकिन इससे यह नहीं साबित होता कि वे अहिंसक थे बल्कि वे तो अंग्रेजो के लिए हिंसक लड़ाई लड़ते-लड़ते अपनी जान भी निछावर करने को तैयार थे और इसीकारण अपने प्राणों से भी प्रिय अंग्रेजी सम्राज्य के प्रति हिंसा करना उनको कतई नहीं सुहाता था इसका उदाहरण गाँधी जी के ही शब्दों में-
अंग्रेजो ने झुलुओं के विरोध में युद्ध प्रारम्भ किया था उसके सम्बन्ध में गाँधी जी लिखते हैं “झुलू लोगों ने हिंदुस्तानी लोगों को भी कोई हानी नहीं पहुँचाई थी। उनलोगों पर विद्रोह करने का आरोप भी ठीक नहीं था। उन लोगों की बड़ी क्रूरता से हत्या हो रही थी, परन्तु फिर भी उनलोगों के विरोध में अंग्रेजो ने युद्ध घोषित करके स्वयंसेवकों की मांग की यह सुनते ही मैंने स्वयंसेवक बन कर अंग्रेजो की सेना में भरती हो लड़ाई में यत्किंचित् भाग लेने का निश्चय किया। क्योंकि मैं अंग्रेजी साम्राज्य को विश्व पर उपकार करने वाला साम्राज्य समझता था। उस साम्राज्य का विनाश न हो यह मेरी हार्दिक इच्छा थी।”
यहाँ तो गाँधी जी यह जानते हुए भी कि अंग्रेजो का यह कार्य अधर्म है, अंग्रेज निरपराध झुलुओ का वध कर रहे है, वे अंग्रेजो कि ओर से हिंसक लड़ाई लड़ने को तैयार हो गए. वाह रे अहिंसा के पुजारी. गाँधी जी अगर सचमुच ही अहिंसा के पुजारी थे तो उन्हें ऐसे अवसर पर कहना चाहिए था, “ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा झुलू समुदाय पर किए जाने वाले अत्याचार निंदनीय है, क्योंकि वह हिंसक अत्याचार हैं, इसलिए अधर्म्य हैं। संसार पर उपकार करने के नाम पर की गई हिंसा को वन्दनीय और क्रूरता करने के नाम से की गई हिंसा को निंदनीय, मैं अहिंसा की ऐसी द्विविध व्याख्या नहीं कर सकता अतः कोई भी भारतीय अंग्रेजों के इस हिंसक युद्ध के लिए कोई सहायता न करे।” अगर गाँधी जी ने ऐसा कहा होता तभी हम मान सकते थे कि वे अहिंसा के सिधान्तों के प्रति निष्ठावान थे।
लेकिन इसकी जगह पर तो वे अंग्रेजो के एक सच्चे सिपाही कि भांति उनके प्रति पूर्ण रूपेण निष्ठावान बने रहे और वे उनके इस हिंसक कार्य में समर्थन ही नहीं किया बल्कि भाग लेने का भी निश्चय कर लिया.
अतः वे अंग्रेजो के खिलाफ किसी भी प्रकार की हिंसा को किस प्रकार उचित ठहरा सकते थे इसीलिए उनकी नजरो में सभी क्रांतिकारी सदा खटकते रहे. जब क्रांतिकारियों का जोर बढ़ रहा था तब युवाओ को अहिंसा कि और मोड़ने के लिए अंग्रेजो ने गाँधी जी का भरपूर इस्तेमाल किया और उनका यह प्रयोग बहुत लाभदायक रहा. फिर वे मात्र थोड़े से परेशानी के लिए गाँधी को मारने का कष्ट क्यों करें. इसीलिए वह गाँधी के अधिकांश मांगो के सामने झुकने का दिखावा करती रही और मुर्ख जनता को लगा कि गाँधी जी अपने अहिंसा के अस्त्र से अंग्रेजो को परास्त कर रहे है अतः जनता भी पुरे जोर-शोर के साथ उनके साथ हो ली और अहिंसा को ही सब कुछ समझने लगी. और आज भी कुछ लोगो के मन पर यह तिलस्म जारी है और वे लोग अब भी यह जोर-शोर से गाते है
“दे दी हमे आजादी बिना खड़ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल”