मेरी दूसरी हिमाचल यात्रा
दिनांक: 30 oct – 07 Nov 2019
(डलहौजी एवं आसपास का भ्रमण)
इससे पहले इसी साल जून के महीने में ही मैं पहली बार हिमाचल गया था, लेकिन कुछ ऐसा संयोग बना कि 3 महीने के भीतर ही मुझे दुबारा हिमाचल भ्रमण करने का मौका मिल गया।
पहली यात्रा वृतांत पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें जब जून में गया था तो वहाँ मैं अपने एक मित्र ईशान जी के यहाँ ठहरा था। वहाँ मुझे बहुत ही अपनत्व मिला था, उन्हीं ईशान जी की शादी तय हो गई 1 nov को और वे मुझे पुनः आमंत्रित करने लगे। इस बार उन्होंने मुझे अपने दोस्तों को भी साथ लाने के लिए बोला। उनका यह निमंत्रण अस्वीकार नहीं कर सका और तैयारी करने लगा दूसरी बार हिमाचल जाने का। देखते-देखते मेरे साथ तीन और लोग जो मेरे भाई ही थे अभिनव, अनिकेत और विवेक, मेरे साथ जाने को तैयार हो गए, और हावड़ा-जम्मूतवी में बिहार के बक्सर से पठानकोट का उन सबका टिकट कटा लिया । उनका घर पठानकोट से 40 किमी पूर्व भडवार गाँव में था।
हमलोग बक्सर से 30 अक्टूबर को दोपहर में चले और वहाँ घर पहुँचते-पहुँचते 31 को शाम हो गई थी। अबकी बार हिमाचल जाने का उत्साह पहले से थोड़ा ज्यादा था क्योंकि वहाँ के एक शादी में सम्मिलित होकर वहाँ के रीति रिवाज को समझने का एकदम नजदीक से मौका मिलने वाला था। पहले दिन तो आराम ही किया और घर के अधिकांश लोगों से परिचय किया। उनकी शादी अगले दिन यानी 1 नवंबर को थी। उस दिन सुबह हमलोग स्नान करने पास ही एक नगीना देवी मंदिर था वहाँ चले गए। उसके बाद दिन भर वहाँ के स्थानीय रीति रिवाज से शादी के विभिन्न रश्मों को देखने लगे।
चूँकि विवाह संपन्न हो गया था और हमलोगों की वापसी टिकट 5 को ही थी अतः उसके पहले ही हमलोगों ने आसपास के क्षेत्रों को घुमलेने की योजना बनाई। इससे पहले मैं धर्मशाला, कांगड़ा, कुल्लू में मणिकर्ण, खीरगंगा इत्यादि घूम चुका था। अतः इस बार डलहौजी-खजियार जाने का कार्यक्रम बनाया। जैसे ही मैंने ईशान भैया को अपने डलहौजी जाने के कार्यक्रम के बारे में बताया उन्होंने डलहौजी के थोड़ा पहले बनीखेत में मौजूद अपने एक परिचित, “मंजीत जी” का नंबर दे दिया, और रास्ते में खाने के लिए खाना वैगेरह भी पैक करके दे दिया।
डलहौजी जाने के लिए हमलोगों ने दोपहर में नूरपुर से बस पकड़ा और 3 बजे तक बनीखेत पहुँच गए। उन दिनों हिमाचल में कोई सरकारी सम्मेलन होने वाला था जिसमें प्रधानमंत्री भी आने वाले थे अतः सारा होटल पहले से ही बुक था अतः अंत में मंजीत जी ने अपने एक दोस्त के गेस्ट हाउस में ही ठहरा दिया। हमलोग उस दिन बनीखेत में ही ठहर गए। यह डलहौजी से 6 किमी पहले थे।
अगले दिन यानी 3 नवंबर को हमलोगों ने खजियार चलने का कार्यक्रम बनाया, इसके लिए बस के बारे में हमलोगों ने पहले ही पता कर लिया था। एक बस 8:30 में ही थी जो डलहौजी होते हुए खजियार जाती थी। इसलिए हमलोग सुबह जल्दी-जल्दी उठकर तैयार होने लगे लेकिन विवेक को सोने का आदत था वो जल्दी उठा ही नहीं और बाद में पीछे से आने को बोल सोते रह गया। अतः हम तीन ही खजियार के लिए निकल लिए।
खजियार यहाँ से 29 किमी दूर एक बहुत ही रमणीक स्थल था, उसके गेट पर ही लिखा था “WELCOME TO MINI SWITZERLAND”. वहाँ एक बहुत बड़ा मैदान था और बीच में एक छोटा सा झील था लेकिन उसमें पानी बहुत ही कम था। मैदान में पहुँचने पर चारों और देवदार से ढकी ऊंची-ऊंची पहाड़ियाँ अद्भुद दृश्य पैदा कर रही थी। 10:30 तक हमलोग खजियार पहुँच चुके थे जाते ही कुछ घोड़ा वाले हमारे पीछे लग गए, वे पूरे मैदान का चक्कर लगवाने का 300 रु मांग रहे थे। तभी एक लड़का पैराग्लाइडिंग करवाने की बात करने लगा। मैंने पैराग्लाइडिंग के बारे में बहुत सुन रखा था, न जाने कब यह मौका आए। लेकिन वो 2000 रु एक व्यक्ति का मांग रहा था। हमने घटाते-घटाते उसे 1300 रु पर ला दिया फिर बाद में 200 रु गो प्रो कैमरा का भी जोड़ दिया। खैर हम दो लोग, मैं और अनिकेत इसके लिए तैयार हो गए। वो अपनी कार से हमलोगों को लैंडिंग साइट तक ले गया उसके बाद हमलोगों को ट्रेक कर पहाड़ की ऊँची चोटियों पर पैदल चढ़ना था। मेरे साथ जो लड़का था उसके पीठ पर 40 किलो वजनी पैरासूट था। थोड़ी देर में हमलोग चोटी पर पहुँच गए थे, वहाँ पहले से ही कई पर्यटक मौजूद थे जो एक के बाद एक उड़ान भर रहे थे। जब वो मुझे पैराशूट से बांध रहे थे तब मन बहुत रोमांचित हो रहा था आगामी घटने वाले घटनाक्रम को लेकर। लेकिन एक बार जब पैरासूट उड़ गया तो कोई खास डर और रोमांच नहीं महशुस हुआ। उस दिन आसमान में बादल छाए हुए थे इसलिए हवा नहीं बहने के कारण बस 3:30 मिनट में ही हमारा पैरासूट लैंड कर गया और एक झटके में मेरा 1500 रु भी हजम हो गया। खैर अपने मित्रों के बीच कहने के लिए एक कहानी जरूर उपलब्ध हो गया था। लैंड करवाने के बाद उनलोगों ने हमें कार से ही वापस खजियार छोड़ दिया।
उधर जब विवेक सो कर उठा तो उसे डलहौजी के बाद खजियार का कोई साधन ही नहीं मिला फिर कुछ और टूरिस्ट मिल गए जो आसपास के क्षेत्र घूम रहे थे वो उन्हीं लोगों में शामिल हो गया और डलहौजी से ही घूमकर वापस बनीखेत गेस्ट हाउस में आ गया। जो सोता है वो खोता है वाला कहावत एकदम से उसपर फिट हो गया था। शाम को हमने वही खाना खाया जहां ठहरे थे।
अगले दिन हमने दो जगह घूमने का प्लान बनाया था, एक कालाटोप का जंगल जिसमें 3 km की जंगल से होते हुए ट्रेकिंग थी। दूसरा पंचपुला जो डलहौजी से लगभग 3 km था। लेकिन बदकिस्मती से आज एक साथ निकलने के प्रयास के चक्कर में हम सभी लेट हो गए और कालाटोप वाली आखिरी बस जो डलहौजी में 9:30 में थी छूट गई। अगली बस का कोई ठिकाना न था, कोई 1 बजे कह रहा था तो कोई 2 बजे। वह यहाँ से 12 किमी दूर था। टैक्सी वाले केवल उतनी ही दूरी तय कराने के लिए 700 रु मांग रहे थे। इसलिए कालाटोप जंगल भ्रमण का प्लान कैंसल हो गया। वैसे भी उसमें सुना था कि भालू रहते है जो कई बार हमला भी कर देते है लेकिन ऐसी घटनाएं बहुत ही रेयर होती है।
कालाटोप प्लान कैंसल होने के बाद डलहौजी नगर और उसके आसपास के क्षेत्रों में ही घूमकर वापस चलने की योजना बनी।
इसके बाद शुरू हुआ हमलोगों का डलहौजी भ्रमण। डलहौजी शहर में ही ऐसे शानदार-शानदार प्राकृतिक दृश्य मिल जा रहे थे कि सभी फोटो खींचने खिंचाने में ही व्यस्त रहते और बस स्टैंड से गाँधी चौक का 2 किमी का रास्ता पूरा करने में लगभग दो घण्टे लग गए। गाँधी चौक से फिर हमलोग पंचपुला की ओर चल दिए। चूँकि पहाड़ो पर सीधा रास्ता तो है नहीं, या तो चढ़ाई है या फिर उतराई। गाँधी चौक से दो रास्ते चले जाते है एक चढ़ाई पर जो कालाटोप, खजियार, चंबा की ओर जाते है और नीचे जाने वाला रास्ता पंचपुला की ओर जाता था। वहाँ भी पूरे रास्ते प्राकृतिक दृश्य खत्म होने का नाम नहीं ले रहे थे और इसका मतलब अनगिनत फोटो। लेट होना ही था। हमलोग 1 बजे के करीब पंचपुला पहुँच गए थे। पांच पुल होने के कारण उस जगह का नाम पंचपुला पड़ा है। वहाँ सरदार किशन सिंह का बहुत बड़ा स्मारक था। सरदार किशन सिंह क्रांतिकारी थे और वे भगत सिंह के चाचा थे। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र डलहौजी के आसपास रहा था। वहाँ हमलोगों ने कुछ सॉल खरीदे। फिर वहाँ गिरने वाले एक छोटे से झरने को देखने चल दिए। झरना बहुत ही छोटा था बहुत कम पानी आ रहा था। हो सकता है बरसात में ज्यादा पानी आता हो। उसी छोटे से जगह पर फोटो खिंचवाने की लाइन लगी थी और कई लोग अपनी बारी का इंतेजार कर रहे थे क्योंकि जगह ही बहुत कम थी। वहाँ हमने आसपास के जगहों पर घूमते घूमते लगभग 3 बजा दिए। वही पे नास्ता वैगेरह भी किया। चूँकि अब कोई और जगह घूमने का वक्त ही नहीं था इसलिए सबने आज ही वहाँ से वापस नूरपुर-भडवार निकलने की योजना पर सहमति जताई और तुरंत चल दिए बनीखेत अपने गेस्ट हाऊस पर। वहाँ से तुरत-फुरत अपना सामान समेटे और 5 बजे पठानकोट की बस पकड़ लिया। चूँकि हमलोगों को नूरपुर की तरफ जाना था इसलिए बस वाले ने हमे पठानकोट से 10 किमी पहले चक्की पड़ाव उतार दिया जहाँ से हमे दूसरी बस नूरपुर के लिए और फिर भडवार की मिल गई। 9 बजे तक हम घर पर थे।
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अगले दिन 5 तारीख को पूरा दिन समय था लेकिन दो-तीन दिन लगातार घूमने के बाद किसी की हिम्मत नहीं हुई कही और आसपास घूमने की योजना बना सकने की। अतः दिन भर आराम किया और शाम को पठानकोट स्टेशन चल दिया। वहाँ धौलाधार एक्सप्रेस रात 11 बजे थी जो सुबह 10 बजे दिल्ली पहुँचाती थी। दिल्ली पहुँचते ही हड़बड़ी में हमलोगों ने अपना एक बैग ट्रैन में छोड़ चलते बने लेकिन अभी ओवरब्रिज पर पहुँचे ही थे कि किसी को चश्मा की याद आ गई जो उसी बैग में था। फिर क्या था उसने वापस तुरंत दौड़ लगा दी लेकिन इतने ही देर में किसी ने बैग को खोल सारा सामान फैला दिया था। हालांकि एक दो सामान ही गायब हुआ था। शायद ट्रेन में घुसते ही उसको आभास हो गया होगा कि कोई आ रहा है, इसीलिए बैग बच भी गया। उसके बाद हमलोगों की अगली ट्रेन वहाँ से 5 बजे गरीब रथ थी जो आनंदविहार से खुलने वाली थी। अतः बचे हुए समय का सदुपयोग करते हुए इस बीच हम और मेरा एक भाई अभिनव इंडिया गेट घूमने चले गए थे। वहाँ से सीधे समय पर आनंद विहार स्टेशन चले गए। जहाँ से गाड़ी खुलने के बाद अगले दिन 7 नवंबर को सुबह 4 बजे बक्सर पहुँचे।
कैसी लगी मेरी यह यात्रा संस्मरण, एक टिप्पड़ी अवश्य कीजिएगा। धन्यवाद।
आलोक देश पाण्डेय
बक्सर (बिहार)
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