मेरी पहली हिमाचल यात्रा (भाग 4)
Part 4(Day 08: 20 जून 2019)
खीरगंगा ट्रेकिंग…
कल रात मणिकर्ण गुरुद्वारा में बिताई थी। सुबह जल्दी ही उठ सारे बिस्तरा जमाकर कर गुरुद्वारा छोड़ दिया। हालाँकि एक व्यक्ति ने हमें बताया था कि बरसैनी के लिए पहली बस यहाँ से 8 बजे जाती है।
मणिकर्ण से लगभग 14 किमी बाद एक जगह है बरसैनी। वहाँ नजदीक ही पुलगा में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट वाला एक डैम का भी निर्माण हो रहा है। वही एक पहाड़ पर स्थित है खीरगंगा नामक जगह जहाँ शिवजी का एक छोटा सा मंदिर है और वहाँ भी गर्म जल का एक कुंड है। हमें उसी जगह पर जंगल पहाड़ होते हुए पैदल जाना था। इस पैदल यात्रा को सामान्यतः ट्रेकिंग बोलते है। वहाँ उस जगह पर जब आवश्यक सामान ढोकर लेना जाना होता है जिसके लिए खच्चर का प्रयोग होता है। क्योंकि वहाँ किसी वाहन के जाने लायक रास्ता नहीं है।
तो हमारी कुल ट्रेकिंग थी 12 किमी की। इसके लिए जरूरी सामान लेकर सुबह 6 बजे ही गुरुद्वारा से निकल गया और बाहर सड़क पर इंतजार करने लगा इस उम्मीद में कि कोई लिफ्ट के माध्यम से ही साधन मिल जाए वहाँ तक पहुँचने के लिए। अंततः एक गुजरते पीकप को हाथ से इशारा देने पर वह रुक गया। मेरी किश्मत अच्छी थी वो वही जा रहा था। दरअसल हमको जल्दी इसलिए थी, क्योंकि हम उसी दिन वापस भी लौटना चाहते थे, ताकि हमारा कम खर्चा लगे। वहाँ देर हो जाने पर टेंट में रात बितानी पड़ती। मैंने एक दिन पहले ही उधर से लौट कर आए हुए एक टूरिस्ट से बात की थी। उसको खाना पीना लेकर 1200 रु प्रति व्यक्ति पड़ा था। हमको लौटने के लिए शाम को 5 बजे तक लास्ट बस पकड़ने के लिए बरसैनी पहुंच जाना आवश्यक था। अतः सुबह जल्दी ही निकल गया।
वहाँ बरसैनी में एक टेम्पररी रेन कोट और एक छड़ी ख़रीदा। पहाड़ो में ट्रेकिंग करते वक्त छड़ी का बहुत महत्व है ये मुझे ट्रेकिंग के बाद समझ आया। सुबह का नास्ता करके यात्रा प्रारंभ कर दिए। लेकिन शुरू करते करते 10 बज ही गया था। मैं पहाड़ी पगडंडियों पर अकेले ही जा रहा था। मुझे कई लोगों ने सुझाव दिया था कि ट्रेकिंग पर हमेशा कोई न कोई समूह में जाना चाहिए और मैने प्रयास भी किया लेकिन किसी समूह से जुड़ नहीं पाया। कुछ दूर तक तो कुछ दुकानदारों से खीरगंगा का रास्ता पूछ-पूछ कर आगे बढ़ता रहा लेकिन जब सारे दुकान पीछे छूट गए तो अकेले पहाड़ो में आगे बढ़ते हुए सारे पगडंडी जैसे अचानक से विलुप्त से हो गए। तब एहसास हुआ कि लगता है मैं भटक गया हूँ। इसके बाद भी किसी तरह उबड़-खाबड़ पथरीला मार्ग पर ही आगे बढ़ता रहा ताकि शायद कुछ उम्मीद दिख जाए। और दिखी भी, बस कुछ ही दूर चलने के बाद नीचे तरफ एक युवाओं का समूह नजर आया। उस दिशा में धीरे-धीरे चल कर उनसे बात करने की कोशिस की पर वे हिंदी समझ ही नहीं पाए अंततः अंग्रेजी में बात करने पर पता चला कि वे केरल से है और लौट रहे है। मुझे तो उधर जाने वाले किसी समूह की तलाश थी ताकि दुबारा न रास्ता भटक जाऊ। खैर उनलोगों से सही रास्ता मालूम हो गया और भगवान का नाम लेकर चल दिया। अब आगे बढ़ने पर पगडंडी एकदम clear थी, लगभग 1 किमी चलने के बाद सुस्ता ही रहा था कि पीछे से एक और समूह मेरी ओर बढ़ता नजर आया। फिर कुछ उम्मीद जगी और पूछा कि आपलोग खीरगंगा की ओर जा रहे है क्या? तो बोले कि नहीं खीरगंगा तो नहीं लेकिन आधे रास्ते तक जरूर जाएँगे।
तभी उनमें से एक वॉकी-टॉकी निकाल बात करने लगा।
हैलो… नीरज… हैलो… कॉपी… हैलो
उधर से कोई आवाज नहीं आ रहा था लेकिन वह बार बार प्रयास कर रहा था।
मैंने पूछ लिया कि भाई आपलोग सरकारी कर्मचारी हो क्या?
“हा, हमलोग रेस्क्यू डिपार्टमेंट से है” एक लड़के ने जबाब दिया।
मैंने कौतूहलवश पूछ लिया कि कोई घटना घट गई है क्या?
पता चला कि एक लड़का घाटी में बहने वाली नदी में गिर गया है उसी को रेस्क्यू करने वे लोग जा रहे थे। नदी बहुत गहरी नहीं थी लेकिन बहाव बहुत ज्यादा था। अभी उनलोगों को बहुत आगे जाना था सो साथ-साथ चलने लगा। लेकिन कुछ दूर बाद ही पहाड़ पर खड़ी चढ़ाई चढ़ने से मैं हाँफने लगा। शायद वो लोग भी थक गए थे तो कुछ देर रुक गए। हमे भी आराम मिल गया। अतः जब वे लोग दुबारा से चलने लगे तो मैंने भी कोशिस की कि उनलोगों के साथ-साथ ही चलु लेकिन जल्दी ही मैं फिर से थक गया और फिर धीरे-धीरे उनलोगों का साथ छूट गया। वे लोग बहुत तेजी से आगे निकल गए।
पूरे रास्ते मुझे पहाड़ो के किनारे किनारे हो कर गुजरना था। वो रास्ते मात्र लगभग 2 फुट के ही थे और उसके बाद बहुत ही विशाल खाई दिखाई दे रहा था। उसी रास्ते पर हम आगे बढ़ रहे थे। चलते-चलते कुछ लोग मुझे सुस्ताते नजर आए। मैंने भी उन्हें भी उधर से आने वालों में से ही समझा लेकिन बात करने पर पता चला कि वे खीरगंगा की ओर ही जा रहे थे और लोकल हिमाचल के ही थे। मेरे लिए सोने पर सुहागा हो गया कि कोई तो मिला जिसके साथ आगे का रास्ता कटेगा। उनलोगों ने भी मुझे अकेले न जाने कि हिदायत देते हुए जंगल में भालू होने की बात भी बताई। हालांकि मुझे डर नहीं लगा क्योंकि मुझे पहले से भी पता था कि इस जंगल में भालू रहते है। उनलोगों ने मुझे अपने ग्रुप में जोड़ लिया। चलते- चलते उनलोगों से अच्छी खासी दोस्ती हो गई।
जब मैं साथ-साथ चलने लगा तब अनुभव हुआ कि समूह में चलने से किस प्रकार का फायदा है। डर लगना तो दूर की बात है सबसे ज्यादा फायदा तो फोटो खिंचवाने में है। अकेले चाहे कितने ही प्राकृतिक दृश्यों को अपने कैमरे में कैद कर लो अपना फोटो तो बढ़िया से नहीं ही ले पाते है। इसके अलावा साथ-साथ चलने से मन में कॉम्पटीशन की भावना पैदा हो गया। थोड़ी देर पहले जब मैं कुछ ही थकने के बाद रुक जाता था अब रुकने पर बेइज्जती होने का खतरा महसूस करते हुए लगातार उनलोगों के साथ चलते जा रहा था। इसकी वजह से ही मैंने अपना ट्रेक तय समय 4-5 घण्टे के भीतर पूरा कर लिया, वरना उधर से लौट कर आने वाले कई पर्यटकों ने बताया कि 7-8 घण्टे ऊपर पहुँचने में लग गए।
वे लोग कुल 6 की संख्या में थे जिसमें से एक लड़की थी, सभी एक ही परिवार से थे और निजी वाहन से थे। उनलोगों के साथ आई लड़की बार-बार थक जाती थी और बैठने की जिद करने लगती जिसकी वजह से कई बार उसे डाट भी सुनना पड़ गया और आगे से ऐसी किसी ट्रिप पर न ले जाने की धमकी भी दी गई। लेकिन इससे मुझे बहुत फायदा हुआ और उसकी वजह से मुझे कई बार बिना कुछ कहे सुस्ताने का मौका मिल गया।
रास्ते में मुझे कई विदेशी भी लौटते नजर आ रहे थे मैं उनसे पूछने का प्रयास करता कि where are you from. जितनों से पूछा लगभग सभी इजरायल के ही थे। लगता है यह ट्रेक इजराइलियों के बीच बहुत फेमस था। एक बंदा तो दौड़ता हुआ ट्रेक कर रहा था। हमलोगों में से एक व्यक्ति ने बताया कि ये सब वहाँ की आर्मी में जॉब करते है और 6 महीना कमाते है फिर 6 महीना भ्रमण करते है।
#हिमालयन कुत्ते:-
उधर से लौटते वक्त बहुत लोगो के साथ वहाँ के लोकल कुत्ते भी जा और आ रहे थे। पहली बार जब मैंने ऐसा कुत्ता मणिकर्ण में देखा तो अचानक डर गया कि यह कोई काटने वाला विदेशी नस्ल का कुत्ता तो नहीं लेकिन थोड़ी ही देर में मेरा भय जाता रहा, क्योंकि इसी तरह के बहुत सारे कुत्ते उस इलाके में घूमते हुए दिख गए। मैं तुरंत समझ गया कि यह यहाँ का देशी कुत्ता है। दरअसल सभी कुत्तो के बहुत बड़े-बड़े रोए थे जो मैंने अपने प्रदेश में सिर्फ विदेशी कुत्तो में देखा था लेकिन इस इलाका में लगभग सालो भर ठंड की स्थिति रहती है और बर्फ गिरती रहती है अतः उन कुत्तो का बनावट भी उसी परिस्थिति के अनुसार था।
#खच्चरों से समस्या:-
दरअसल जो लोग ऊपर जाकर तम्बू में एक रात गुजारते है उनके लिए और अपने रोजगार के लिए वहाँ के स्थानीय निवासी व्यवस्था करते है। जिसके लिए खाने-पीने सहित आवश्यक साजो सामान पहुँचाने का एक मात्र साधन वहाँ के खच्चर ही है। इन खच्चरों पर समान लादने के बाद ये किसी भी टेढ़े-मेढ़े, उबड़-खाबड़ रास्ते पर आराम से चलते है। लेकिन समस्या तब होती है तब एक ही रास्ते पर उनसे आमना सामना हो जाए, क्योंकि पहाड़ पर चढ़ने वाला रास्ता मात्र 2-3 फुट से ज्यादा नहीं होता था। इसके चलते कई बार हमलोगों को पीछे भाग कर किसी चौड़ी जगह की तलाश करना पड़ गया ताकि उनलोगों को पास दिया जा सके। लेकिन जो भी हो ये खच्चरे वहाँ के लिए बड़े काम की चीज है।
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करीब 4 घण्टे की चढ़ाई के बाद अंततः हम खीरगंगा पहुँच चुके थे। लेकिन खीर जैसा कोई चीज हमको दिखाई नहीं दिया। एक जगह पढ़ा था कि वहाँ की “काई” सफेद-सफेद होता है इसलिए खीरगंगा नाम पड़ गया। अब खैर जो भी कारण हो खीरगंगा नाम पड़ने की, लेकिन मुझे तो वहाँ सिर्फ हरी काई ही दिखी। हाँ वह जगह प्राकृतिक दृश्यों से एकदम भरपूर था। उसके चारों बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वत दिखाई दे रहे थे उनमें कई बर्फ से भी ढके थे। धार्मिक दृष्टि से वहाँ एक शिव जी का छोटा सा मंदिर था। बगल में पहाड़ो से एक गर्म जल का स्त्रोत निकल रहा था जिसको एक कुंड का रूप दे दिया गया था। वहाँ नीचे से ज्यादा ठंडा था। लेकिन कुंड में गर्म जल में नहाने के बाद सारी थकान जाती रही। जब जल में कमर से ऊपर जाते थे तो ठंडी लगती थी और जल के भीतर जाते थे कुछ सेकंड के लिए उबलने का एहसास होता था। लेकिन पानी में बने रहने से कुछ ही सेकंड में शरीर अपने आपको एडजस्ट कर लेता था। जब नहा कर निकले तो उसी समय बारिस शुरू हो गया। वो तो भला हो उस टेम्पररी रेनकोट का जिसे आते वक्त ले लिया था। क्योंकि ये बारिस नीचे उतरने तक जारी रहा।
आप स्लाइड करके सारे image को देख सकते है
वापसी…
खीरगंगा में नहाने के तुरंत बाद ही हमलोग वहाँ से नीचे चलने को उद्धत हो गए। चूँकि हमारे साथ जो लोग थे वे अपने निजी वाहन से आए थे अतः उनलोगों को देर से भी नीचे पहुँचने पर कोई समस्या नहीं थी लेकिन मेरी आखिरी बस तो 5 बजे तक ही थी, और 3 वही बज गए थे। लेकिन उनलोगों के साथ मेरी 3-4 घण्टे की दोस्ती मेरे काम आई और वे लोग कुल्लू-मंडी हाइवे तक अपने वाहन से मुझे भी छोड़ने को राजी हो गए। उनके पास 8 सीटर इनोवा गाड़ी थी इसलिए मेरे बैठने से उनलोगों को कोई खास परेशानी नहीं होने वाली थी अतः हम भी साथ ही वापस चलने के लिए तैयार हो गए। चूँकि बारिस अभी शुरू ही हुई थी अतः बंद होने के आस लिए कुछ देर इंतजार करने के इरादे से वही एक टेंट वाले के पास मैगी खाने के लिए रुक गए।
तब तक वो हमें टेंट में आसरा दे दिया। लेकिन जाते वक्त एक प्लेट मैगी और एक ग्लास चाय का बिल 100 रु प्रति व्यक्ति के हिसाब से थमा दिया। इसके बाद कुछ और खाने का मन ही नहीं किया और बारिस में ही तुरन्त नीचे की ओर चल दिए।
अमूमन वहाँ लोग 12 बजे से चढ़ाई शुरू करते है और सुबह-सुबह ही उतरने लगते है क्योंकि वहाँ के लिए पहली बस ही लगभग 10 बजे पहुँचती है। लेकिन हम तो 10 बजे से चढ़ाई शुरू कर दिए थे अतः जब हमलोग वापस लौटने लगे तो हमें रास्ते में चढ़ने वालो की जत्था दिखाई देने शुरू हो गए। सभी बहुत थके-थके नजर आते थे और हम सभी से एक ही सवाल पूछते थे कि भाई और कितना दूर चलना रह गया है। खैर उतराई में निश्चित रूप कुछ कम ऊर्जा लगता है लेकिन वहाँ की उतराई में भी कुछ-कुछ दूर पर चढ़ाई थी अतः उसमें भी अच्छे खासे थक गए। उसमें भी सबसे बड़ी समस्या थी कि रास्ते भर बारिस होती रही इससे वो 2 फुट वाला कच्चा रास्ता फिसलनदार भी हो गया था। बड़ी सावधानी से हमें एक-एक कदम फूक कर रखना पड़ता था, नहीं तो हल्की गलती होने से हमारे लिए भी एक रेस्क्यू टीम को रवाना होना पड़ता। उस समय मेरे लिए वो छड़ी बहुत ही उपयोगी साबित हुई जिसने मुझे कई बार गिरते-गिरते बचाया। मेरे ग्रुप में जो लड़की थी वो एकबारगी छटक कर रास्ते पर ही गिर पड़ी जिससे उसके सारे कपड़े भी खराब हो गए। इसी तरह एक अन्य टूरिस्ट को छटक कर गीरते देखा। मेरी किश्मत थोड़ी अच्छी थी कि एक दो बार पैर फिसलने के बावजूद जमीन पर नहीं गिरा।
आसपास के क्षेत्र भ्रमण की योजना:- चूंकि हम कुल्लू जिले में थे और कुल्लू, मनाली जैसे जगहों का बहुत नाम भी सुने थे अतः अब यहाँ आकर वैसी जगहों पर न जाना थोड़ा अफ़सोसजनक जरूर होता लेकिन इस बारे वहाँ उनलोगों से पूछने पर कि कुल्लू या मनाली में घूमने वाला चीज क्या-क्या है सबने नकारात्मक ही उत्तर दिए। ये भी हो सकता है कि घर की मुर्गी को वे लोग दाल बराबर समझ रहे होंगे। लेकिन उनलोगों के अनुसार बढ़िया-बढ़िया होटल, कुछ मंदिर इत्यादि के अलावा वहाँ कुछ नहीं है क्योंकि जो scene यहाँ दिखाई दे रहा है वो वहाँ भी है। हा, मनाली से 51 किमी ऊपर एक रोहतांग दर्रा है जहाँ हम बर्फ देखने जरूर जा सकते है। मैंने तो ज्यादा गर्म कपड़े भी नहीं लाए थे और मेरा मन भी इतना भर गया था कि अब जरा भी घूमने की इच्छा नहीं हो रही थी इसपर से उनलोगों की नकारात्मक बाते सुनकर के वहाँ से आगे घूमने जाने का प्लान कैंसिल कर दिया। और वापस घर जाने की योजना बनाने लग गया।
खैर 7 बजे तक हमलोग नीचे अपने वाहन तक पहुँच गए। वहाँ उनलोगों ने अपने सारे कपड़े बदल लिए। हम सबके कपड़े खास जूते बहुत गन्दे हो गए थे। वहाँ से चलने के बाद बीच मे मणिकर्ण में मैंने उनलोगों की गाड़ी रुकवाई जहाँ मैंने अपना बड़ा वाला बैग एक आँटी के यहाँ छोड़ दिया था। उस समय 8 बज रहा होगा लेकिन थोड़ी दूर पैदल चलने पर ही मुझे बहुत ज्यादा ठंडी का एहसास होने लगा और मेरे दाँत किटकिटाने लगे। किसी तरह बैग लेकर आया और फिर गाड़ी में सवार हो वहाँ से चल दिया। वहाँ से हाइवे 35 किमी दूर स्थित भूंतार में था। शुरू में वो लोग वहाँ से कुल्लू की तरफ राफ्टिंग के उद्देश्य से जाने वाले थे लेकिन एन मौके पर उनका प्लान बदला और मंडी की तरफ मुड़ गए। इस तरह से हम सीधे टपोली स्थित आशीष जी के दरवाजे पर उतरे। जहाँ हम खा पी कर सोए तो सीधे 6 बजे सुबह उठे।
क्रमशः
(नोट:- हमारी यह यात्रा कुल 13 दिनों की थी, सो ज्यादा लंबा पोस्ट लिखने से बचने के लिए इसे हम पार्ट वाइज और डेट वाइज ही पोस्ट कर रहे है, हर पोस्ट के नीचे आपको इस यात्रा से जुड़े सभी पोस्ट लिंक मिल जाएंगे)
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